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कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ

27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


अपरिचित


मोहन राकेश

कुहरे की वजह से खिड़कियों के शीशे धुंधले पड़ गए थे। गाड़ी चालीस मील की रफ्तार से सुनसान अंधेरे को चीरती चली जा रही थी। खिड़की से सिर सटाकर भी बाहर कुछ दिखाई नहीं देता था। फिर भी, मैं आंख गड़ा कर देखने का प्रयत्न कर रहा था। कभी किसी पेड़ की हलकी-गहरी रेखा ही पास से गुजर जाती, तो कुछ देख लेने का सन्तोष होता। मन को उलझाए रखने के लिए इतना ही काफी था। पलकों में जरा नींद नहीं थी। गाड़ी को न जाने कितनी देर बाद जाकर कहीं ठहरना था। जब और कुछ दिखाई नहीं देता था, तो अपना प्रतिबिम्ब तो कम से कम देखा ही जा सकता था। अपने प्रतिबिम्ब के अतिरिक्त और भी कई प्रतिबिम्ब थे। ऊपर की बर्थ पर सोए हुए व्यक्ति का प्रतिबिम्ब अजब बेबसी के साथ हिल रहा था। नीचे सामने की बर्थ पर बैठी हुई महिला का प्रतिबिम्ब बहुत उदास था। उसकी भारी-भारी पलकें पल भर के लिए ऊपर उठतीं और फिर नीचे झुक जातीं। आकृतियों के अतिरिक्त कई बार नई-नई ध्वनियां ध्यान बंटा लेती थीं, जिनसे भान होता था कि गाड़ी पुल पर से जा रही है या मकानों की पंक्ति के आगे से गुजर रही है। बीच-बीच में सहसा इंजन की सीटी चीख जाती, जिससे अंधेरा और एकान्त और भी गहरे प्रतीत होने लगते।
मैंने खिड़की से सिर हटाकर घड़ी की ओर देखा। सवा ग्यारह बजे थे। सामने बैठी हुई महिला की आंखें बहुत सुनसान थीं।

बीच-बीच में उनमें एक लहर सी आ जाती और विलीन हो जाती। वह जैसे आंखों से देख नहीं रही थी, सोच रही थी। उसकी बच्ची, जो फर के कम्बल में लिपट कर सोई थी, जरा-जरा कुनमुनाने लगी। उसकी गुलाबी ऊन की टोपी सिर से उतर गई थी। उसने दो-एक बार पैर पटके, अपनी बंधी हुई मुट्ठियां ऊपर उठाईं और सहसा रोने लगी। महिला की सुनसान आंखें उमड़ आईं। उसने बच्ची के सिर पर टोपी ठीक कर दी और उसे कम्बल समेत उठा कर छाती से लगा लिया।
मगर इससे बच्ची का रोना बन्द नहीं हुआ। उसने बच्ची को हिला कर और दुलार कर चुप कराना चाहा। फिर भी वह रोती ही रही, तो उसने कम्बल थोड़ा ऊपर उठा कर उसके मुंह में दूध दे दिया और उसे अपने साथ सटा लिया।
मैंने फिर खिड़की के साय सिर टिका लिया। दूर तक बत्तियों की कतार नजर आ रही थी। शायद वह कोई आबादी थी, या केवल सड़क ही थी। गाड़ी बहुत तेज चल रही थी और इंजन पास होने के कारण कुहरे के साथ धुआं भी खिड़की के शीशों पर जमता जा रहा था। आबादी या सड़क, जो भी थी, अब धीरे-धीरे पीछे छूटती जा रही थी। शीशे में दिखाई देते हुए  प्रतिबिम्ब पहले से गहरे हो गए थे। महिला की आंखें बन्द थीं और ऊपर लेटे हुए व्यक्ति की बांह जोर-जोर से हिल रही थी। शीशे पर मेरी सांस के फैलने से प्रतिबिम्ब और धुंधले हुए जा रहे थे, यहां तक कि एक बार सब आकृतियां अदृश्य हो गईं। मैंने जेब से रूमाल निकाल कर शीशे को पोंछ दिया।

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