कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ 27 श्रेष्ठ कहानियाँचन्द्रगुप्त विद्यालंकार
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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ
अन्त में, हरीश ने दो सौ पच्चीस रुपए, जो उसके पास थे, दे दिए और पूर्णिमा
अपना छुटकारा कराने के लिए चली गई। यह रुपए देना हरीश को अखरा, पर अन्तिम
खर्च के रूप में उसे एक तरह की तसल्ली भी हुई।
अगले दिन पूर्णिमा निश्चित समय पर नहीं आई-यहां तक कि दिन भर नहीं आई।
क्या वह दुष्ट फिर भी नहीं माना?'' कहीं वह उसे जबर्दस्ती तो नहीं ले गया।
वह आदमी सब कुछ कर सकता है। देखने में बिलकुल कोई दागी मालूम होता है।
होटल का भी तो पता नहीं कि जाकर कुछ पता लगाएं।
दो-तीन दिन तक हरीश होटल से बाहर नहीं निकला, तो सरजू उधर से निकलते
हुए बोला-''भई, क्या बात है? अब जी नहीं लगता?
हरीश बोला-''कुछ ऐसी ही बात है।''
सरजूप्रसाद कुर्सी पर बैठ गया, बोला-''क्या आप लड़की के पीछे इतने परेशान
हैं?''
पहले तो हरीश माना नहीं, फिर उसने सारी बात बता दी और कहा-''होटल का पता
होता, तो कुछ पता लगता।''
तब सरजूप्रसाद ठहाका मार कर हँसा, बोला-''अरे! आप इसी बात पर परेशान हो
रहे हैं? न पति-पत्नी में कोई झगड़ा हुआ है और न वह आपको चाहती ही है। यह
सब तो मिली भगत थी। वे हर साल यहां आते हैं और किसी न किसी को फांस कर
सारा खर्च निकालते हैं। ऊपर से कुछ ले भी जाते हों, तो कोई ताज्जुब
नहीं।''
हरीश उठ कर खड़ा हो गया, बोला-आप को यह सब पता था?
-पता नहीं था तो क्या? ऐसे ही होटल चला रहा हूं?
-मुझे क्यों नहीं बताया?
-आपको बताता, तो आप दो हफ्ते में ही चल देते; यहां आठ हफ्ते हो गए। आप
कहते थे कि यहां वालों को टूरिज्म का गुर नहीं आता। देख लिया गुर?
हरीश दंग रह गया। उसने उसी समय बिस्तरा बांधा और दिल्ली की ओर चल पड़ा।
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