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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


हरीश जल्दी से तैयार होकर चला और घूमते-फिरते राजभवन पहुंच गया। सचमुच जगह बहुत सुन्दर थी। प्रकृति का बहुत मनोरम रूप दिखाई पड़ता था। एक स्थान से दूर तक पर्वतमालाएं दिखलाई पड़ती थीं, मैदान में जो घास लगी थी, वह सचमुच गुलमर्ग की याद दिलाती थी। इसके अन्दर कितनी ही सड़कें और पगडंडियां थीं। किसी ने कहा-''इन सड़कों की कुल लम्बाई साठ मील है।''
हरीश के मन में बहुत सी बातें आ रही थीं-विशेषकर यह बात आ रही थी कि इसमें यात्रियों के लिए एक-एक कमरे वाले दो हजार घर बनाने पर भी इसका सौन्दर्य कायम रह सकता है।

बहुत बड़ी संख्या में लोग पिकनिक करने आए थे, पर हरीश अपने विचारों में डूबा था। एकाएक उसे वहां पूर्णिमा की झलक मिल गई। वह चौकन्ना हो गया। क्या यह भ्रम था? नहीं, यह पूर्णिमा ही थी और उसके साथ वही यादवचन्द्र। अरे! वह तो कहती थी कि यादवचन्द्र महीना भर पहले ही चला गया।
हरीश किसी अदृश्य शक्ति के द्वारा परिचालित होकर पूर्णिमा की ओर बढ़ा। पति-पत्नी हँस-हँस कर बातें कर रहे थे, यह देखकर वह बहुत आगे नहीं बढ़ा। वह लौटने ही वाला था कि पूर्णिमा ने उसे देख लिया। एक बार उसका चेहरा फक हो गया, पर तुरन्त ही वह संभल गई और उसने अपने पति से निगाह बचा कर हरीश को इशारा कर दिया कि उधर झुरमुट में खड़े रहो। हरीश ने आज्ञा का पालन किया। थोड़ी देर में पूर्णिमा आई और बोली-''मैंने कल बताया नहीं था कि वे कल फिर आ गए। होटल में तो उनसे बात हो नहीं सकती थी, क्योंकि वह बात-बात में चिल्ला पड़ते हैं, इसलिए आज यहां चली आई। मैं अब उनसे बिलकुल छुटकारा किए लेती हूं। बहुत माफी-वाफी मांग रहे हैं, पर मैं किसी तरह नहीं मानने की। मैं जाती हूं।''

कह कर वह मुसकराती हुई चली गई। हरीश को सारी बात कुछ अजीब मालूम हुई; पर जब उसने गहराई से सोचा, तो उसे मालुम हुआ कि ऐसी सुन्दरी पत्नी के लिए लखनऊ से लौट आना और माफी मांगना कोई बड़ी बात नहीं है। फिर भी, उसके मन ने कहा कि पूर्णिमा को कल ही उसे सारी बात बता देनी चाहिए थी।
हरीश का मन फिर राजभवन में नहीं लगा और वह सीधे अपने होटल में पहुंचा। संध्या-समय वह पड़ा-पड़ा कुछ पढ़ रहा था, पर उस के कान दरवाजे की ओर लगे थे।

जैसी उसे आशा थी, वैसा ही हुआ। पूर्णिमा आई और बोली-''वह तो बड़ा दुष्ट निकला। कहता है कि अगर मैं उसके साथ न चलूं, तो वह हम लोगों के विरुद्ध व्यभिचार का मुकदमा चलाएगा! इस पर मैंने कहा कि देखो, हम लोगों में प्रेम तो रहा नहीं-अब जो चाहते हो, सो बताओ। तब उसने बहुत घुमा-फिरा कर यह कहा कि एक हजार रुपया लेकर वह हम लोगों का पिंड छोड़ने को तैयार है। किसी तरह मना-मुनू कर मैंने इसे पांच सौ करा दिया। अब आप 'ना' न करिए। इन चूड़ियों को ले लीजिए और पांच सौ रुपए दे दीजिए, ताकि उससे हमेशा के लिए पिंड छूटे। जिन्दा रहूंगी, तो ऐसी चूड़ियां जाने कितनी मिलेंगी।''
हरीश ने चूडियां लेने से इनकार किया, बोला-मेरे पास इतने रुपए तो नहीं होंगे।''

पूर्णिमा बोली-''तीन सौ तक हों, तो भी वापस भेज सकती हूं-न होगा उसी को दो-तीन चूड़ियां दे दूंगी। ऐसे समय चूड़ियां काम न आएं, तो कब आएंगी!''
हरीश बोला-''यह तो ब्लैकमेल है...। और एक बार इसके सामने घुटना टेका, तो वह हर छठे महीने आकर आप से रुपए वसूल करेगा।''
''अजी, तब तक मैं कोई काम खोज लूंगी, आप सहायता तो करेंगे ही। अभी तो यह बला टले।''

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