कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ 27 श्रेष्ठ कहानियाँचन्द्रगुप्त विद्यालंकार
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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ
घनिष्ठता बढ़ी और हरीश ने दोनों को शनिवार के दिन अपने होटल में खाने पर
बुलाया। सरजूप्रसाद से विशेष रूप से कह दिया गया था। जब अतिथि आए, तो
स्वयं सरजूप्रसाद देख-रेख के लिए मौजूद था। सब खाने बहुत बढ़िया बने थे और
अतिथि बहुत खुश होकर गए।
हरीश का जी इतना लग गया कि उसने अपनी छुट्टी बढ़वा ली और नित्य सैर-सपाटा
तथा खाना-पीना एक साथ होने लगा। न हरीश अब सरजू के पास समय काटने जाता और
न सरजू के पास ही हरीश के लिए समय था।
आज भीमताल और नौकुचिया ताल का कार्यक्रम था। हरीश अभी उठकर तैयार ही हो
रहा था कि इतने में सरजू के साथ पूर्णिमा आई। सरजू कमरा दिखा कर चला गया।
पूर्णिमा के लिए चाय आई और वह चाय पीने लगी। आज वह कुछ दुखी थी। हरीश को
यह तो पहले ही पता लग चुका था कि वह अपने पति के उजड्ड व्यवहारों से दुखी
रहती है। इसके अलावा दो दिन हुए, पूर्णिमा ने हरीश से कहा भी था-''वह बाज
वक्त बड़ी मक्खीचूसी कर जाते हैं। यहां आए हैं, तो दिल खोल कर पैसे खर्च
करने चाहिए, पर वे तो एक-एक पैसे को दांत से पकड़ते हैं।''
इधर-उधर की बातों के बाद पूर्णिमा बोली-''मैंने बताया नहीं था, उनसे मैं
बहुत दुखी रहती हूं। आज तो हद हो गई, बोले कि आज से आपके साथ हम लोगों का
कोई सम्बन्ध नहीं। जब मैंने इसका कारण पूछा, तो वे आप पर बरस पड़े और बोले
कि वह तो घाघ मालूम होता है। तब मैंने कहा कि कम से कम आज तो चलना ही है,
क्योंकि वायदा कर चुके हैं, पर वे बोले-'नहीं, किसी भी हालत में नहीं। तुम
या तो उसके साथ जाओ या मेरे साथ रहो।'
''मैं बोली-''यह युग चला गया, जब मनुष्य गुफाओं में रहते थे। दिनों स्त्री
पति के हाथ की कठपुतली और उनकी बांदी हुआ करती थी। अब वह युग लद गया है।
तुम तो सामने ही रहते हो, फिर क्या बात है?''
''पर वह नहीं माने। तब मैंने अपना सामान दूसरे होटल में रख लिया। अब
समस्या है कि क्या करूं? होटल वाला पेशगी मांगता है, इसलिए मैं अपनी सोने
की चूडियां आपके पास रखकर रुपए मांगने आई हूं।''
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