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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ



गुर


मन्मथनाथ गुप्त

मई के आरम्भ में ही हरीश को जाने क्या सूझा, बिस्तरा और सूटकेस लेकर नैनीताल पहुंच गया। अभी तक वहां सभी होटल खाली थे, इसलिए उसे जगह मिलने में कोई दिक्कत नहीं हुई। होटल वालों के चेहरों पर अभी तक गुस्ताखी का वह पुचाड़ा नहीं फिरा था, जो होटलों के भर जाने के बाद स्वाभाविक हो जाता है। हरीश के पास भी काफी समय था और होटल का मालिक सरजूप्रसाद तो निठल्ला था ही।

दोनों अक्सर बातचीत करते थे। हरीश दिल्ली से आया था, इसलिए वह अपने को सभी विषयों का ज्ञाता मानता था। सरजूप्रसाद भी उसके दावे को एक हद तक मानता था। हरीश कहता भी अच्छी बातें था। एक दिन बोला-''टूरिज्म-टूरिज्म कहते हैं, पर करते क्या खाक हैं? किसी को यात्रियों को आकृष्ट करने का गुर नहीं आता। जो लोग-टूरिस्ट विभाग में बैठे हैं, वे तो किसी के सगे होंगे, इसलिए उन्हें कोई फिक्र नहीं। पर जो यात्री विज्ञापनबाजी में फंसकर आ पड़ा, उसकी तो मौत है।''

सरजूप्रसाद मन ही मन हिसाब लगा रहा था कि इस समय कितना मुनाफा हो रहा है, इसलिए उसने अन्यमनस्क ढंग से कहा-"अभी हम लोग पिछड़े हुए हैं। जब हम सभी मामलों में पिछड़े हुए हैं, तो इस काम में पिछड़े रहना कोई आश्चर्य की बात तो नहीं है।''

हरीश बिगड़कर बोला-''यही शिथिलता तो सारी बुराइयों की जड़-है। मुझे तो यहां इस झील के सिवा कोई आकर्षण नही मालूम होता। मैं तो दो हफ्ते की छुट्टी लेकर आया हूं, पर चार दिन में ही तबीयत ऊबने लगी है।''

सरजूप्रसाद बोला-''चाइना पीक जाइए, स्नो पीक जाइए, नाव चलाइए, फ्लैट पर घूमिए, घोड़े की सवारी कीजिए। दिल लग ही जाएगा।''

इसके बाद समतल क्षेत्रों में एकाएक गर्मी तेजी से पड़ने लगी और बेशुमार यात्री आने लगे। अब सरसूप्रसाद का कहीं पता नहीं लगता था यानी रहता तो वह काउण्टर पर ही था, पर कोई न कोई ग्राहक उसके सामने घिघियाता होता था कि उसे जगह मिल जाए। हरीश से कभी चलते-फिरते आते-जाते सलाम-दुआ हो जाती थी, बस।

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