दिन में जब कमलापति दफ्तर चला गया, तब आज बहुत दिनों के बाद उसे अपनी
सारी स्थिति पर विचार करने की इच्छा हुई। किवाड़ बन्द करके वह
सीमेंट के ऊपर ही लेट गई। दरी भी उसने नहीं बिछाई। गर्मी बहुत कड़ी थी और
भीतर दम घुटा जा रहा था। उसके पास हाथ का पंखा भी न था। एक फटा-पुराना
अखबार मोड़कर उसी से कुछ क्षण हवा करती रही, बाद में उसे भी छोड़ दिया। गली
में अपेक्षाकृत सन्नाटा था, पर गली के पास ही, पूरब की ओर, बड़ी सड़क से
निरन्तर मोटरों और ट्रामों की घर-घर ध्वनि, भोंपू और घंटी की आवाज़ आकर मन
की और बाहर की शांति भंग कर रही थी।
लेटी-लेटी वह सोचने लगी कि उसके जीवन की गाड़ी कहां-से-कहां जाकर टकराई और
कहां आकर दलदल में फंस कर रह गई। ठीक इन्हीं शब्दों में सोचने की बुद्धि
उसमें नहीं थी, पर उसके बहुत चोटें खाए हुए, पीड़ित और तपे हुए अन्तर से
भाप की तरह निकलने वाले भावों की अस्पष्ट रूपरेखा कुछ इसी प्रकार की थी।
उसे उस दिन की याद आ रही थी, जब उसकी सखियां और गांव की' दूसरी स्त्रियां
ललकती हुई आंखों से उसे और उसके पति की ओर देखती हुई उसके सौभाग्य के
प्रति ईर्ष्यालु-सी हो उठी थीं। न जाने कितने युग बीत गए उसे पहाड़ को
छोड़े! कलकत्ते के ऊंचे-ऊंचे, पाषाण से भी कठोर धातु के बने भवनों और
मनुष्य के अस्तित्व की तनिक भी परवाह न करने वाली बड़ी-बड़ी
मोटरों और ट्रामों के बीच में दस वर्ष
तक रहने से उसका हृदय भी जैसे पथरा गया था और वह अपने अस्तित्व के उस मूल
स्रोत को ही भूल गई थी, जिसमें उसका प्रारम्भिक जीवन लहलहाया था। वह स्रोत
भरी जवानी के तट पर आते-न-आते न जाने किस भीषण रेगिस्तान के भीतर फंस कर,
सूख कर, उससे कट कर रह गया। कलकत्ते में लाखों आदमी रहते हैं, पर अपने दस
वर्ष के जीवन में कहीं किसी मनुष्य के सहृदय प्राणों का स्पर्श तो क्या,
छाया तक उसने नहीं पाई थी। वे सब मनुष्य उसके लिए जैसे किसी निराले ही लोक
के विजातीय जीव थे। वे प्रेत, पिशाच, मूत, बेताल, यक्ष दानव या इसी तरह की
किसी और योनि के प्राणी भले ही हों, पर मनुष्य नहीं थे। वह उनसे चारों ओर
से घिरी रहने पर भी, किसी निर्मम जादूगर के विचित्र अभिशाप से उनके
संग-स्पर्श से एकदम परे थी। उनकी सांस भी उसकी सांस से आकर नहीं टकराती थी
और जिन लोगों से, जिस ऊंची पहाड़ी धरती से, उसके प्राण कभी एक रूप में बंधे
थे, उन लोगों से भी कितनी दूर वह पड़ गई थी। न जाने कितने असंख्य योजनों
का-कितने अनन्त युगों का-व्यवधान उनके और उसके बीच में पड़ गया
था। उसकी निद्रालु आंखें झपती चली जा रही थीं और साथ ही उसके
अन्तर्लोक से उठने वाली भाव-छायाएं विचित्र से विचित्रतर, अस्पष्ट से
अस्पष्टतर रूप धारण करके उसके सिर के भीतर चक्कर काटती हुई, एक अनोखा,
उद्दाम और उच्छंखल नृत्य-सा करने लगी थीं।
सहसा उसने अनुभव किया कि उसका शरीर हलका होता चला जा रहा है। दूसरे ही
क्षण वह रूई से भी हलके होकर आकाश में उड़ने लगी और बहुत दूर तक उड़ने के
बाद जब नीचे उतरी तो उस ने अपने को एकदम बदली हुई पाया। साड़ी और जम्फर की
जगह उस का शरीर लहंगा, पिछौरी और अङ्गिया से ढका हुआ था। उसे आश्चर्य हो
रहा था कि वह चौदह-पन्द्रह बरस की लड़की कैसे बन गई। उसके चारों ओर
ऊंचे-ऊंचे पहाड़ थे। वह स्वयं एक ऊंचे टीले पर खड़ी थी। बहुत दूर नीचे, एक
छोटी-सी नदी के किनारे, एक गांव था। लगता था, जैसे चारों ओर चांदनी छिटकी
हुई है। सर्वत्र सन्नाटा छाया था। वह गला फाड़कर किसी को हांक लगाना चाहती
थी, पर आवाज निकलती ही
नहीं थी। न जाने कहां कोई चिड़िया बहुत ही धीमे स्वर में, कुछ क्षणों के
अन्तर से, बोल रही थी। वह बोलना क्या था, लगता था, जैसे अपनी दो नन्हीं-सी
चोंचों से सिसकारी भर रही हो, जैसे वह उस सारे सन्नाटे के हृदय का स्पन्दन
हो। वह उस सारी पहाड़ी प्रकृति में-सारे विश्व में-अपने अकेलेपन की अनुभूति
से घबरा उठी। वह रोना ही चाहती थी कि सहसा उसके कान खड़े हुए-लगा कि
उल्लास-भरे स्वर में गानेवाली स्त्रियों और पुरुषों की एक टोली नीचे के
किसी स्थान से ऊपर की ओर चली आ रही है। आनन्द राग में मस्त स्त्रियों और
पुरुषों का वह दल निकट से निकटतर आता चला गया। कुछ ही समय बाद उसने देखा
कि वे लोग उसके बिलकुल पास आ पहुंचे। सबके कपड़े होली के विविध
रंगों से रंगे हुए थे। उसने अपने कपड़ों की ओर देखा। उनमें भी लाल, हरे और
वसन्ती रंगों के छींटे न-जाने कहां से पड़ गए थे। वह दौड़ती हुई नीचे उतरी
और स्त्रियों की टोली में जा मिली और उन्हीं के स्वर में स्वर
मिलाती हुई पूरी तरह से गला खोलकर गाने लगी। उसे आश्चर्य हुआ कि
उसका गला अचानक अपने आप कैसे खुल गया। टोली एक ऐसी जगह पहुंची जहां मैदान
था। वहां पहुंचकर स्त्रियों ने रास-मंडल की तरह एक गोल बांध
लिया और पुरुषों ने भी अलग एक गोल घेरा बना लिया। ये लोग ताल और लय में
नाचने और गाने लगे। रुक्मा के आनन्द और उल्लास की सीमा नहीं थी। वह मुक्त
कण्ठ से गा रही थी और स्वच्छन्द गति से नाच रही थी। अपने
अगल-बगल वह जिन दो लड़कियों का-सम्भवत: अपनी सहेलियों का-हाथ
पकड़कर कभी बाएं और कभी दाएं झुक कर नाच रही थी, उनमें से एक ने
कहा-''अरी रुक्मा, यहां कहां आकर नाचने लगी! तेरी तो शादी हो गई
है। तू तो 'अफसराइन' बन गई है। तेरा वह अफसर देखेगा, तो क्या
कहेगा?''
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