आज सुबह जो घटना घट चुकी थी, उसी सिलसिले में रुक्मा को सीमेंट पर
लेटे-लेटे वे सब पुरानी बातें एक-एक करके याद आ रही थीं। वह सोच रही थी कि
एक ओर वह इस कदर शक्की बन गया था और दूसरी ओर यह हाल था कि जब कभी कोई आगा
ब्याज का रुपया वसूल करने के लिए सवेरे ही घर आकर दरवाजा खटखटाता, तब वह
स्वयं गुसलखाने में छिप जाता और रुक्मा से कहता कि दरवाजा खोल कर उससे कह
दो कि घर पर नहीं हैं-दो एक दिन बाद स्वयं तुम्हारे घर जा कर रुपये दे
आएंगे। आगा लोगों की आकृति, गुण, स्वभाव, चरित्र और पेशे के सम्बन्ध में
रुक्मा को कोई जानकारी नहीं थी। जब पहली बार उसने एक भीमकाय आगा को लम्बी
लाठी हाथ में लिए दरवाजे पर खड़ा देखा और विचित्र उच्चारण के साथ उसका
गर्जन सुना, तब उसे लगा, कि मारे भय के वह मूर्छित होकर गिर पड़ेगी। किसी
तरह कांपते हुए गले से उसने अपने पति की बात अपनी ओर से दोहराई। आगा ने
गरजते हुए कहा-''परसों रुपया जरूर मिल जाना चाहिए, नहीं तो नतीजा अच्छा न
होगा।'' सुन कर रुक्मा ने हड़बड़ाते हुए दरवाजा बन्द कर लिया और दुःख,
क्रोध, लज्जा और भय से रो पड़ी।
अकसर शनिवार को रात भर और इतवार को दिन भर कमलापति के यहां उसके
जुआरी साथियों की बैठक जमती। कमरे के आर-पार एक काला पर्दा टांग
दिया जाता। एक-चौथाई भाग में रुक्मा सिकुड़कर बैठी या लेटी रहती और शेष
तीन-चौथाई भाग में जुआ होता और देसी शराब के दौर चलते रहते। बीच-बीच में
जुआरी बुरी तरह लड़ते-झगड़ते और एक-दूसरे को बहुत गन्दी और अश्रव्य गालियां
देने लगते। सुन कर रुक्मा का शरीर और मन लज्जा, घृणा और ग्लानि से कंटकित
हो उठता। फिर, कुछ ही समय बाद, अट्टहास और परस्पर प्रेमालाप चलने लगता।
रुक्मा को कई बार उन लोगों को चाय पिलानी पड़ती और कभी-कभी खाना भी खिलाना
पड़ता। पता नहीं, जुआ खेलने के दिन कमलापति के पास रुपया कहां से आ जाता और
चाय, चीनी और दूसरा सामान कहां से आकर जुट जाता। रात भर जगे रहने के बाद
दूसरे दिन जब वह कमरे की सफाई करती, तब फर्श पर पड़े सिगरेटों और बीड़ियों
के जले हुए टुकड़ों का ढेर उसे बटोरना पड़ता। कमलापति जीता या
हारा, इसका पता उसे आसानी से लग जाता। जिस दिन वह हारा होता, उस दिन
रुक्मा पर किसी-न-किसी बहाने बुरी तरह मार पड़ती और बात-बात पर
गन्दी-से-गन्दी गालियों की बौछार होती और जिस दिन वह जीता होता, उस दिन
बड़े ही प्रेम और सान्त्वना के स्वर में कमलापति कहता-''तुम घबराती क्यों
हो? मैं आज ही तुम्हारे लिए पहले से भी बढ़िया गहने और कपड़े खरीद दूंगा।
जल्दी ही हम लोगों के दुख के दिन दूर हो जाएंगे।'' पर फिर कभी न गहने
खरीदे जाते न कपड़े। दूसरी बार फिर उस पर उसी तरह मार पड़ती और गालियां
बरसने लगतीं। जीत के दिन कभी-कभी ही आते, अधिकतर हार की ही प्रतिक्रिया का
सामना रुक्मा को करना पड़ता।
इस बार भी शनिवार को रात भर जुआ होता रहा, पर दूसरे दिन इतवार को किसी
कारण से जुआरी नहीं जुट पाए। दिन के बदले इस बार इतवार को भी रात में बैठक
जम गई। लगातार दो रातों के जागरण का फल यह हुआ कि रुक्मा के न चाहने पर भी
सुबह चार बजे के करीब बरबस बेखबर होकर पर्दे के उस पार जमीन पर लेट गई।
उसके बाल बिखरे हुए थे और साड़ी अस्त-व्यस्त पड़ी थी। साढ़े पांच बजे के
करीब जब सभी जुआरी चले गए, तब कमलापति ने पर्दा हटाया। रुक्मा को बेखबर
बाईं करवट देखकर उसका पांव खुजलाया और उसने खींचकर एक लात जमाई।
अर्द्धजागरण की-सी अवस्था में रुक्मा ने करवट बदलते हुए कहा-''क्या बात
है?'' और फिर उसी क्षण उसकी आंखें बरबस मुंद गईं। कमलापति ने पूरी ताकत से
एक दूसरी लात मारी और फिर तीसरी और चौथी...। आंखें मलती हुई रुक्मा
हड़बड़ाती हुई बोली-''यह क्या कर रहे हो?''
''हरामजादी तुझे शरम नहीं आती इस तरह बेहूदा ढंग से लेटते हुए! उठ झट-से
एक प्याला चाय तैयार कर। रात भर का जगा हूं। इतनी देर तक एक प्याला चाय भी
नहीं मिली। ऐसी औरत के साथ गिरस्ती चलाने से तो मर जाना अच्छा है!''
रुक्मा एक शब्द भी न बोली। साड़ी के छोर को सिर के ऊपर सरकाती हुई चुपचाप
उठी और अंगीठी जलाने लगी।
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