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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


''कहां हुई मेरी शादी?'' रुक्मा ने भार-मुक्त हृदय से निकले हुए आराम के उच्छवास के साथ कहा-''पगली कहीं की! वह तो सपना था-मैंने तो बताया था!''

फिर सहसा उसका हृदय धड़क उठा-यह सोचकर, कि कहीं सचमुच उसकी शादी हो न गई हो और वह भूल रही हो। गोल से अलग होकर वह शंकित हृदय से एक अधेड़ स्त्री के पास पहुंची, जो एक किनारे खड़ी थी। ''तुम्हीं बताओ मौसी, क्या मेरी शादी हो गई है?''-उसने पूछा। पर उस औरत ने कोई उत्तर नहीं दिया। इसी तरह, तीन-चार औरतों से उसने बड़ी ही चिन्ता के स्वर में पूछा, पर सब मुसकरा कर चुप रह जाती थीं-कोई कुछ उत्तर नहीं देती थी। वह पागलों की तरह इधर-उधर दौड़ने लगी। कौन करेगा उसकी शंका का समाधान? क्या सचमुच उसकी शादी हो चुकी है? नहीं, नहीं, ऐसा कभी नहीं हो सकता। उसके साथ की इतनी लड़कियों में से जब किसी की शादी नहीं हुई, तब उसी की क्यों होगी। पर ये लोग पूछने पर भी कुछ जवाब क्यों नहीं देते? वह उसी घबराहट में पुरुषों में पहुंची। वह एक-एक करके सबको पहचानने की कोशिश करने लगी। जिसे भी देखती, पहली झलक में उसे लगता कि उसे वह पहचानती है, पर फिर उसका रूप बदल कर कुछ का कुछ हो जाता। सहसा उसने देखा कि कमलापति भी उसी मंडली में नाचता हुआ गा रहा है। ''ये लोग कौन हैं?''-उसने अपने आप से पूछा-''यह मैं कहां आ गई हूं? मुझे दूसरी जगह जाना चाहिए।'' दूसरे ही क्षण वह मंडली जुए की बैठक में बदल गई। ''नहीं, मैं तो यहां नहीं थी। मुझे भागना चाहिए।'' यह सोचती हुई वह दौड़ कर नीचे की ओर गई। वहां अठारह साल के एक लड़के को देख कर उसने पूछा-''सुनो जी, तुम कौन  हो?'' वह लड़का मुसकराया और उसकी आकृति स्पष्ट से स्पष्टतर होती गई। पहचान कर वह उल्लास में उछल पड़ी और उसकी सारी घबराहट जाती रही। वह तिलोक सिंह था-उसका पुराना साथी, दोपहर में गायों और भैंसों को चराता हुआ एक टीले पर पीठ अड़ा कर बड़े ही मीठे स्वर में बंशी बजाने-वाला।

''अरे तिलोकिया, तू यहां कहां? तू ही बता, क्या मेरी शादी हो गई है?''

''नहीं पगली, अभी से कैसे तेरी शादी होगी! तू क्या सपना देख रही है? जब मेरी शादी होगी, तब तेरी भी होगी। बैठ, मैं वंशी बजाता हूं, तू सुन।''

चैन की सांस लेती हुई रुक्मा बैठ गई। तिलोक सिंह जेब से वंशी निकाल कर बजाने लगा- वहीं पुराना मीठा, उदासी से भरा, पहाड़ी राग! रुक्मा मग्नमन होकर तिलोक सिंह के सरस, सहृदयता से भरे, सुन्दर मुख की ओर एकटक देख रही थी। इतने में होली के राग-रंग में मस्त स्त्रियों और पुरुषों की सम्मिलित टोली पहले की ही तरह मस्ती में गाती हुई वहां पहुंच गई। रुक्मा फिर निश्चिन्त और भार मुक्त मन से उनके साथ मिल गई और पूरी ताकत से उनके उल्लसित स्वर में स्वर मिलाती हुई, नाचने और कूदने लगी। एक अलौकिक उन्माद-एक स्वर्गीय रोमांच-से उसका सारा शरीर, सम्पूर्ण हृदय और समग्र आत्मा पुलकित हो उठी थी। तिलोक सिंह भी उसके उल्लास से प्रभावित होकर उसी के स्वर का साथ देता हुआ वंशी बजाता जाता था। धीरे-धीरे वह और तिलोक सिंह दोनों आगे बढ़ गए और सारे गायकदल का नेतृत्व करने लगे।

इतने में सहसा पास ही जैसे कोई पहाड़ फड़फड़ाता हुआ टूट कर गिर पड़ा। रुक्मा चौंक उठी। उसने आंखें खोलीं। बाहर दरवाजे पर बड़े जोरों से 'ठक-ठक-ठक' शब्द हो रहा था।
''कौन है?''-हड़बड़ा कर रुक्मा ने पूछा।

''हम हैं, आगा!''गुरु-गंभीर गर्जन के साथ बाहर से आवाज आई। सुन कर रुक्मा धक से रह गई। उसे लगा कि उसकी आत्मा उड़ कर न जाने कहां, पहाड़ों के भी बहुत ऊपर, पहुंच चुकी है। केवल उसका मृत शरीर सीमेंट पर पड़ा हुआ है, जिसे उठाकर ले जाने के लिए बाहर दरवाजे पर यमदूत खड़ा है।

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