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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ



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उषादेवी मित्रा

(1)


दिन में झड़ी और रात्रि में घोर वर्षा जारी थी। इन्हीं दोनों के गले में बाहें डाले संसार में अपना बसेरा डाले हुए थीं, दिवा और निशा। न उन्हें बिजली और वर्षा का दुख और चिन्ता रही थी और न शीत की शीतलता का तथा उत्तप्त गर्मी के लु-लपटों का भय। वे शायद इनसे परिचय  और सखीत्व भी स्थापित कर चुकी हों, तो विस्मय नहीं। उनकी बातें वे ही जानें।

रेवती को जब उसके पति रणधीर बहादुर के साथ उस प्रकाण्ड किन्तु अर्द्ध-जलमग्न प्रासाद में प्रवेश कुरते हुए दिवा और निशा ने देखा, तो उदासीनता भरी मुसकान उनके मुख पर व्याप्त हो गई और फिर वायु के झोके में दोनों समा गईं।

उस घर में प्रवेश करते हुए रेवती बार-बार सिहरने लगी। न जाने क्यों, उसके प्रत्येक लोमकूप में एक अद्भुत और विचित्र अशांति जाग कर बैठ गई।

प्राणिवर्जित गृह-न तो कोई नववधू का स्वागत करने को आया और न शंख का निनाद हुआ; न बाजे बजे, न खुशी की एक चिनगारी ही दिखाई दी। साईस गाड़ी पर से सामान उतार कर, सीढ़ियां पार करता हुआ, ऊपर की मंजिल में चढ़ने लगा।

रणधीर बहादुर ने पुकारा-''लछिया, ओ लछिया!''

एक वृद्धा नारी आंगन का दूसरा दरवाजा खोलती हुई पहुंची-''हां मालिक! आहा, हमारी नई रानी बहू भी आ गई हैं! परन्तु महाराज ने न कोई तार दिया और न और किसी तरह आने का संदेश भेजा। राजबहू का आदर-सत्कार कुछ नहीं किया गया। आज कितने दिनों के बाद यह राजमहल गुलजार हो रहा है। रानी बहू शीतला देवी के स्वर्गवास के बाद वर्षों से राजप्रासाद खाली पड़ा था!''

तब अन्धकार धीरे-धीरे बांह बढ़ाकर मानो प्रासाद को निगलता चला जा रहा था।
राजा ने धीरे से कहा-''नौकरों को बुलाओ। सब कहां चले गए? प्रासाद में उजाला करो।''

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