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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


मगर उक्त शादी के दो महीने बाद ही एक दिन वह औरत पकड़ी गई। उसके साथ ही एक फौजी अफसर भी पकड़ा गया। फौजी अफसर मुअत्तल हो गया और उस औरत को चौबीस घण्टे के भीतर अम्बाला छोड़ जाने का हुक्म हुआ। औरत पर चोरी का और अफसर पर चोरी का माल खरीदने का इलजाम था।

मालूम हुआ कि शादी के फौरन बाद उस लड़की के पति का तबादला हो गया और वह दूर झांसी चला गया। लड़की उसके साथ गई। कुछ समय बाद वे दोनों छुट्टी पर अम्बाला आए। अम्बाले की सड़कों पर पहले तो मां ही घूमती थी, अब बेटी भी नजर आने लगी। शोख-भड़कीले कपड़े पहने, लिपस्टिक, काजल और सुर्खी लगाए, जेवर पहने, वह अम्बाला की सड़कों पर यों घूमती, जैसे किसी नवाब की बेगम हो। लोग कहते, जमादार को उंगलियों पर नचा रही है। जब वापस लौटे, तो रास्ते में एक स्टेशन पर दुलहिन ने शोर मचाना शुरू कर दिया कि उसके जेवर चोरी हो गए हैं। ट्रंक में बाकी सब कुछ मौजूद था, मगर जेवर न थे। जमादार ने बहुतेरा ढूंढ़ा, रिपोर्ट लिखवाई मगर चोर वहां होता, तो पकड़ा जाता। चोरी तो असल में अम्बाले में हुई थी और जेवरों की असल चोर दुलहिन की मां थी। यों चोरी की बात छिपी रहती, मगर उस औरत को रुपयों की तुरन्त जरूरत थी, सो वह जेवर बेचने गई और पकड़ी गई। बाद में मालूम हुआ कि अपनी बीमार छोटी लड़की, यानी दुलहिन की छोटी बहन के इलाज के लिए वह उसी दिन अस्पताल में इन्तजाम करके आई थी और कह आई थी कि शाम तक वह इलाज की पूरी फीस चुका देगी।

इस घटना से शहर में सनसनी फैल गई। हम बाबू लोगों ने तो उसके चले जाने पर चैन की सांस ली। कुछ लोगों को रंज भी था कि उसे जेल क्यों न हुई। जिस रोज उसे शहर छोड़ने का हुक्म मिला, वह मुझसे मिलने आई; मगर दूर से ही उसे आती देख, मैं क्वार्टर के पिछवाड़े की ओर से भाग गया।

मगर उसने मुझे नहीं भुलाया। अभी दस रोज भी न बीते होंगे कि उसका एक खत मुझे मिला। खत अमृतसर से लिखा हुआ था। वह दिल्ली जाना चाहती थी और उसने मुझसे प्रार्थना की थी कि दिल्ली में मेरी कोई जान-पहचान का आदमी हो, तो उसके नाम चिट्ठी लिख दूं। उसने यह भी लिखा कि वह फलां गाड़ी से दिल्ली जाएगी। उस का छोटा बेटा अभी क्वार्टर में ही है। मेरी बड़ी कृपा होगी, यदि मैं उस बच्चे को स्टेशन तक पहुंचा दूं। इस चिट्ठी का जवाब तो मैंने नहीं दिया, मगर उसके बेटे का स्टेशन तक पहुंचाने की हिम्मत मैंने जरूर की। अब सर्दी का मौसम आ गया था और शाम पड़ते ही अंधेरा छा जाता था। गाड़ी रात के ग्यारह बजे अम्बाला स्टेशन पर पहुंचती थी।

रात के नौ बजे के करीब मैं उसके घर की तरफ गया। क्वार्टर का दरवाजा खुला था, मगर अन्दर गहरा अंधेरा था। मैं ठिठक गया। मगर फिर जी कड़ा करके अन्दर कदम रखा और दियासलाई जलाई। एक कोने में खाट पर बैठा उसका छोटा लड़का ठिठुर रहा था, जैसे भिखमंगे बच्चे बारिश के दिनों में सिकुड़े पड़े होते हैं। मां अपनी बीमार बेटी को लेकर चली गई थी और उसे यहां अकेला छोड़ गई थी। औरत के चले जाने पर बिजली भी काट दी गई थी। पिछले दो सप्ताहों में इस अभागे बालक की सुध किसी ने नहीं ली थी। बच्चे ने मुझे पहचान लिया और कांपता हुआ वह उठ खड़ा हुआ। मैंने दियासलाई की मदद से उसका सामान इकट्ठा किया--एक दरी, आलमारी में दो एक बर्तन और आलमारी के निचले खाने में उस औरत की हरे रंग की फाइल। बस, यही सामान था। जिस किसी तरह मैंने सामान बांधा, खाट को वहीं छोड़ा और हरी फाइल को चादर में लपेट स्टेशन पहुंचा।

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