मानिए, इतना गरीब ब्याह मैंने उमर भर में और कभी नहीं देखा था। कमरे के एक
कोने में उसकी बेटी, गाढ़े की लाल ओढ़नी ओढ़े, एक टिमटिमाते दीए के सामने
चुपचाप झुकी हुई बैठी थी और छोटा भाई कभी दुलहिन की पीठ पर चढ़ता और कभी
जहां मां जाती, उसके पीछे हो लेता।
मगर यह औरत वहां इस तरह घूम रही थी, जैसे रिश्ते के बीसियों आदमी वहां आए
हुए हों और उसे पसीना पोंछने की भी फुर्सत न हो। कभी सुहाग के गीत गाती,
कभी बेटी से हँसी-मजाक करती, कभी गाती हुई अपनी बीमार दूसरी छोटी बेटी के
बाल गूंथने लगती। चारपाई के नीचे टीन का एक ट्रक रखा था। उसे वह मेरे
सामने खींच कर निकाल लाई और खोल कर कहने लगी-''देखो वीर जी, बेटी के लिए
पीली साटन का सूट बनवाया हे। सारे शहर में इस रंग की साटन नहीं मिलती। यह
दोहरा खेस है। यह दरी जेलखाने की बनी है! बीस साल तक नहीं फटेगी। यह सब
बेटी का दहेज है!''
मैंने सुन रखा था कि जब उस औरत का अपना ब्याह हुआ था, तो घर में तीन रात
तक मुजरा हुआ था और शहर के छोटे-बड़े टूट पड़े थे। बेटी का यह दहेज देख कर
मेरा जी भर आया।
इतने में एक लड़का भागता हुआ अन्दर आया और बोला कि बरात आ गई। हम लोग बाहर
आए और देखा कि सचमुच बरात आई है! मगर न बाजा, न फूल, न कोई चहल-पहल। चार
टूटे-फूटे से बराती पैदल चलकर दरी पर आ खड़े हुए थे और उनमें से एक नाटे कद
का, काला सा आदमी, उजले कपड़े पहने, गले में हार लटकाए, दूल्हा बना खड़ा था!
बस, यही बारात थी।
ब्याह हो गया। एक बूढ़े ग्रन्थी ने, जिसे बराती साथ लेते आए थे, आनन्द कारज
करवाया। मैंने निःसंकोच कन्यादान किया। मुंह मीठा करने के लिए परात में से
आटे का हलुवा बांटा गया।
पर शादी की कोई ऐसी रस्म न थी, जो उस औरत ने पूरी न की हो। यहां तक कि
वर-बधू को इकट्ठा बिठा कर जो पहले शरारत भरे
खेल मित्र-सम्बन्धी करते हैं, उन्हें भी उस औरत ने वर-वधू से कराया, ताकि
बेटी के दिल में कोई अरमान बाकी न रह जाए।
बरात लड़की को लेकर लौटने लगी। एक आदमी ने सिर पर ट्रंक उठाया और लड़की अपने
पति के पीछे-पीछे, धीरे-धीरे मैदान पार करने लगी। वह औरत अपने एक हाथ से
मेरी कोहनी को पकड़े चुपचाप यह सब देख रही थी कि एकाएक मैंने अनुभव किया कि
उस स्त्री का हाथ सहसा कांपने लगा है। मैंने मुड़ कर देखा, उसकी आंखों से
झर-झर आंसू बह रहे थे। सिसकते-सिसकते वह कहने लगी-''मैं बेचारी क्या
जानूं...क्या होगा वीर जी? लड़का पूरब का है, हम पंजाबी हैं। तुम्हें लड़का
पसन्द है, वीर जी?''
जैसे पीपल का सूखा पत्ता कांपता है, वह औरत थर-थर कांप रही थी। जिस औरत के
बारे में मैंने तरह-तरह की अफवाहें सुनी थीं, जो निर्भीक हो लोगों के घरों
में घूमा करती थी और एक राक्षसी की तरह चिल्लाती और गालियां देती, फौजियों
के पीछे भाग खड़ी होती थी, उसमें मां का इतना कोमल हृदय है, यह देखकर मेरा
हृदय उसके प्रति आदर से भर गया। मैंने देखा, वह असहाय महिला न मालूम
किन-किन मुसीबतों के सामने अपने परिवार को अपने पैरों के नीचे लिए बैठी
है। मेरे सब सन्देह दूर हो गए और जो सान्त्वना मैं दे सकता था, देकर घर
लौट आया।
...Prev | Next...