की बात यह था कि ओवरसियर के बंगले में से कोई भी उठ कर औरत की मदद को न
आया था।
हम लौट आए, मगर दूसरे रोज वह उसी तरह अपनी हरी फाइल उठाए, मेरे घर आ धमकी।
कहने लगी कि कर्नल रघुवीरसिंह के नाम खत लिख दो। मैं उसके मामले से दूर
रहना चाहता था; मगर वह तो मरते आदमी से भी चिट्ठी लिखवा सकती थी। मैंने
बहुत आनाकानी की; मगर आखिर खत लिख ही दिया। उसने सारा खत ऐन बाकायदा मुझसे
खिलवाया। पांच आदमियों की शिकायत की, एक-एक का नाम, रैंक और कम्पनी
लिखवाई। अपनी स्थिति का रोना-धोना लिखा और उन्हें सजा दिलाने की तलब की।
साथ ही यह भी लिखवाया कि जो उन्हें सजा न हुई, तो सरकार बदनाम होगी और मैं
ब्रिगेडियर साहब तक फरियाद लेकर जाऊंगी।
तीन-चार रोज बाद फिर वह आ पहुंची और एक चेतावनी की उसने लिखवाई। उसके बाद
मामला चुप हो गया। फिर महीनों बीत गए और वह मेरे घर नहीं आई। मैंने सोचा,
उसे जवाब मिल गया होगा या मुमकिन है, किसी दूसरे से चिट्ठियां लिखवाती
फिरती हो।
इस घटना के शायद दो-तीन महीने बाद की बात होगी कि मैं फिर उसके मामले में
आ फंसा। और, अब जो कुछ हुआ, उसकी मुझे तनिक भी आशा न थी।
एक रोज सुबह, अभी प्रभात की किरण भी न फूटी थी कि वह मेरे घर आ पहुंची।
यों भी उसके आने का कोई वक्त नहीं था। उसे देखते ही मैं असमंजस में पड़ गया
कि अब करूं तो क्या करूं। उन दिनों मैं अकेला था। श्रीमती जी मायके गई हुई
थीं। मेरे तो प्राण सूख गए कि सुबह होते-होते यह घर के बाहर निकलेगी, तो
साथ वाले बाबू क्या कहेंगे। पर चुपचाप वह अंदर चली आई-आंखों में काजल लगाए
और लाल दुपट्टा ओढ़े। उसी तरह तेज कदम, हांफती सांस लेती हुई और हाथ हिलाती
हुई। अन्दर आकर वह हंसने-मुसकराने लगी। वह औरत देखने में बुरी न थी। किसी
जमाने में उसने जरूर उस बूढ़े रईस का दिल अपनी भाव-भंगिमा से गरमाया होगा।
मगर उसे अपने घर में
देखकर मेरे पसीना चू रहा था। मैं सोच रहा था कि जब यह क्वार्टर से बाहर
निकलेगी, तो मेरा क्या बनेगा। पर वह हँस कर, दुपट्टे का छोर ओंठों पर रखती
हुई, बोली-
''वीर जी, तुम तो मिलने से भी रहे। इसी से मैं सुबह-सुबह तेरे घर चली आई।
मैने सोचा, देर हो गई, तो तुम कहीं निकल जाओगे।''
''बात क्या है?'' मैंने रुखाई से पूछा।
"आज मेरी बेटी का ब्याह है। वीर जी, आठ बजे आनन्द कारज होगा। मेरा यहां
कौन है? तुम जरूर आना। तुम ही आकर कन्यादान करोगे।''
मेरी जान में जान आई। उसके बाद वह बार-बार आने का अनुरोध करती हुई उठी और
हँसती हुई बाहर चली गई।
वह तो चली गई, मगर मैंने निश्चय कर लिया कि मैं इस ब्याह में नहीं जाऊंगा।
पर आठ बजते-बजते मैं दुविधा में पड़ गया। मुझे खयाल आया कि अगर नहीं जाना
था, तो पहले ही उसे कह देना चाहिए था। और फिर, वहां जाने मैं कौन सा पहाड़
मुझ पर टूट पड़ेगा? खैर, आठ बजते-बजते मैं उसके घर जा पहुंचा और उस रोज
मैंने उसका जो रूप देखा, वह मैं आज तक भूल नहीं पाया। जो कुछ मैने देखा,
उससे सब सुनी-सुनाई बातें मन पर से घुल-पुंछ गईं और मेरे मन में उस औरत के
प्रति आदर फूट पड़ा।
मैं ठीक आठ बजे उसके क्वार्टर पर पहुंच गया; मगर वहां एक भी आदमी नहीं था।
क्वार्टर के बाहर जमीन पर दो छोटी-छोटी फटी हुई दरियां बिछी थीं और एक ओर
तौलिए से ढकी एक पीतल की परात रखी थी। बस। पानी का छिड़काव तक न हुआ था।
मैं अभी वहां खड़ा ही हुआ था कि अन्दर से ऊंचा-ऊंचा गाने की आवाज
आई-''कन्हैया जी आ वड़ियों साडे बेहडे!''1 मैंने आवाज पहचान ली। यह वही
औरत गा रही थी। मुझे देखते ही वह दौड़ी-चौड़ी बाहर चली आई और मेरा हाथ पकड़
कर अन्दर ले गई। सच
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1 हे कृष्ण कन्हैया, मेरे आंगन में आओ!
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