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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


गर्मियों की एक रात की बात है। हम क्वार्टरों के सामने अपनी खाटें बिछाए सो रहे थे, जब गहरी रात गए, ऊंचा-ऊंचा चिल्लाने की आवाजें आने लगीं। हम सब उठ बैठे और यह शोर सुनने लगे। आवाजें ओवरसियर के बंगले की तरफ से आ रही थीं। कुछ लोग तो यह जान कर फिर करवट लेकर सो गए कि यह उसी आवारा औरत
के घर का कोई झगड़ा है; मगर दो एक व्यक्ति अपना कौतूहल मिटाने के लिए, लाठियां उठाए, उस तरफ चल पड़े। मैं भी साथ हो लिया। आवाजें सचमुच उसी के घर से आई थीं। जब हम वहां पहुंचे, तो वह औरत हाथ हिला-हिला कर कह रही थी-

''मैं एक-एक को दुरुस्त करूंगी-थे एक-एक को जानती हूं। मैं सबको पहचानती नहीं हूं? मैं कल ही करनैल साहब को चिट्ठी लिखवाऊंगी!''

उस वक्त भी चिट्ठी की बात सुनकर हम मन ही मन हँसे।
चारों ओर अंधेरा था। केवल उसके छोटे से क्वार्टर के सामने बत्ती जल रही थी और उस बत्ती के नीचे वह औरत अपने सामने खड़ी बेटी को हाथ हिला-हिला कर यह सुना रही थी। क्वार्टर के सामने तीन-चार खाटें बिछी थीं, जिसमें से एक पर उसकी लड़की और दूसरी पर एक नौ-दस वर्ष का बालक चुपचाप घबराए से बैठे थे।

हमें देखते ही वह हमारे पास चली आई। ऊंचे स्वर में मुझसे कहने लगी-
''वीर जी,1 देखा तुमने, यह भी कोई हाल है! ''
मालूम हुआ कि यह औरत अपने परिवार सहित क्वार्टर के बाहर सोई हुई थी, जब कुछ फौजी रात का शो देख कर सिनेमाघर से लौटते हुए और शराब के नशे में पहले आवाजें कसने लगे और फिर नजदीक आकर कंकड़-पत्थर फेंकने लगे। मगर जब यह चिल्लाई और गालियां देती हुई उनके पीछे दौड़ी, तो वे वहां से भाग गए।

मे पहले भी हैरान था कि यह औरत किस प्रकार इस अलग-थलग छावनी में आकर टिकी हुई है। अब मेरे मन में भी खटका पैदा हुआ। अगर फौजी आज आए हैं, तो पहले भी आते होंगे। आखिर, फौजी हर घर पर आवाजें नहीं कसते। मैंने उस औरत की बड़ी लड़की को भी देखा। साधारण-सी लड़की जान पड़ी, मगर कुछ निश्चय न कर पाया कि वहां भी बनावटी क्या है और असल क्या। सबसे अचम्भे  

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1 भाई साहब

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