कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ 27 श्रेष्ठ कहानियाँचन्द्रगुप्त विद्यालंकार
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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ
भीष्म साहनी
कई बार किसी आदमी का पूरा परिचय पाने में वर्षों लग जाते हैं और वर्षों बाद भी आपको यकीन नहीं होता कि आप उसे पूरी तरह जान पाए हैं, या नहीं। मुझे भी एक ऐसा ही विचित्र अनुभव एक स्त्री के सम्बन्ध में हुआ। दो वर्षों के गहरे परिचय के बाद मैं उसे शायद कुछ-कुछ जान पाया था; मगर अब मैं सोचता हूं कि वह पहचान भी एकदम अधूरी थी।
लगभग पांच वर्ष की बात है। तब मैं अम्बाला छावनी में रहा करता था। अब तो अम्बाला बदल गया है, वहां की आबादी बढ़ गई है और सड़कों पर रौनक दिखाई देती है; मगर उन दिनों उसके बड़े-बड़े मैदानों और सपाट लम्बी सड़कों पर केवल फौजी ही घूमते हुए नजर आया करते थे और रात के आठ बजते ही छावनी पर सन्नाटा छा जाया करता था।
इसी अम्बाला छावनी में एक औरत रहा करती थी, जिसे हर उस शख्स ने जरूर देखा होगा, जो उन दिनों अम्बाला में रहा है; क्योंकि वह अकसर सड़कों पर, बगल में हरे रंग की फाइल दबाए, घूमती नजर आती थी। लम्बा-ऊंचा कद, सफेद धुले हुए कपड़े, सीधी चाल और बगल में फाइल। कई लोगों की विलक्षणता उनकी शक्ल-सूरत में होती है और कइयों की वेशभूषा में; मगर उस औरत की विलक्षणता उसके ऊंचे कद और हरी फाइल में थी। यों, न वह युवा थी, न सुन्दरी। जिस वक्त मैंने उसे देखा था, उसकी अवस्था लगभग 40 वर्ष की होगी।
उस औरत को चिट्ठियां लिखवाने का जनून था। छावनी भर में कोई ऐसा बाबू न था, जिससे एक-आध चिटिठयां न लिखवाई हों। खुद वह अनपढ़ थी-एक अक्षर भी न जानती थी-मगर चिट्ठियां लिखवाती और हर चिट्ठी की नकल बड़ी तरतीब से फाइल में लगा लेती। उसकी ये चिट्ठियां निहायत मामूली बातों के बारे में होतीं-बच्चे की फीस माफ करवाने के बारे में, पानी-बिजली के किसी बिल के बारे में, कभी एक जगह से दूसरी जगह अपने तबादले के बारे में।
यह जरूर अनोखी बात थी, मगर इससे भी अनोखी बात यह थी कि बड़े-बड़े अफसरों की कोठियों में वह बेधड़क चली जाती। मैंने खुद उसे कई बार ब्रिगेडियर, कर्नल और एरिया कमाण्डर के घरों में से निकलते देखा था। जरूरी बात है कि जो स्त्री इस कदर आजाद और निडर छावनी में घूमती हो, उसके बारे में तरह-तरह की बातें उठे। कोई कहता, सिफारिशी चिट्ठियां लेने जाती है; कोई कहता, अपनी जवान बेटियों की कमाई खाती है; कोई कहता, किसी अमीर की तीसरी बीबी थी, किसी गांव से खरीद कर लाई हुई और यहां अब फौजी अस्पताल में मामूली सफाई के काम पर नौकर है। लोगों के बारे में अकसर हमारी धारणाएं किंवदन्तियों के आधार पर बनती हैं, इसलिए बाबू लोग उससे सचेत रहते थे। अफसरों के डर से चिट्ठियां तो लिख देते, मगर इससे ज्यादा कोई उससे सरोकार न रखता। मेरा भी उससे परिचय हुआ, मैंने भी उसकी कुछ चिट्ठियां लिखीं और मैं भी लोगों के कहने पर उससे सावधान रहने लगा। शहर के बड़े गिरजे के पीछे, जहां मैं रहता था, उससे थोड़ा हट कर मैदान के पार पेड़ों के झुरमुट के पीछे, एक ओवरसियर के अहाते में उसका क्वार्टर था।
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