''मैं समझा नहीं!'' उसने बिलख कर कहा-''मैं तो छोटा-सा जीव हूं। तुम्हारी
भाषा नहीं जानता। पर तुम तो मानव हो, महान हो-तुम क्यों नहीं मेरी भाषा
समझ पाते? चेष्टा करो, तो क्या सीख नहीं सकते?''
लेकिन दूसरे ही क्षण वह समझ गया कि उसके वचन केवल फूत्कार बन कर रह गए
हैं, क्योंकि अब बहुत से लोग डरावने ढंग से उसकी ओर बढ़ रहे थे और उनके
हाथों में विचित्र-विचित्र हथियार थे।
उसके मन ने कहा-''भाग चलो, आसार अच्छे नहीं हैं।'' पर फिर उसे अपना निश्चय
याद आया और अपनी दृढ़ता से उसे बल मिला। ''आने दो, कोई चिन्ता नहीं।''-उसने
सोचा-''ये अभी समझ जाएंगे कि मैं इनकी हानि करना नहीं चाहता। जब मैं जहर
का उपयोग ही न करूंगा, तो फिर ये मुझे क्यों कष्ट देंगे?'' और, कहीं उसकी
बात फूत्कार में न परिणत हो जाए, इसलिए उसने एक शब्द भी कहना ठीक न समझा।
केवल अपना फन झुका कर, गुड़-मुड़ होकर, शान्त भाव से बैठ गया, मानो पालतू हो!
तभी उसके एक लाठी लगी। चोट से वह तिलमिला गया और बड़ी कठिनाई से उसने अपने
मुंह से निकलते दुर्वचन रोके। उसके मन में बैठा कोई बोल उठा-''अब भी समय
है, भाग चलो!'' पर उसने फन को एक झटका देकर अपना निश्चय दुहराया-''नहीं
नहीं, मैं आज फैसला करके ही रहूंगा। तुम..तुम मेरे जहर के कारण ही मुझसे
घृणा करते हो न? हां, मेरे पास जहर है। पर मैं उसका उपयोग न करने का
निश्चय कर चुका हूं। मार लो, एक लाठी नहीं, दस और मार लो-पर मैं कुछ नहीं
करूंगा। बस, यों ही तुमसे करुणा की, मैत्री की, भीख मांगता बैठा रहूंगा।
आखिर, कभी तो तुम पिघलोगे।''
एक लाठी और। उसकी देह तड़प उठी।
''कोई बात नहीं!''-उसने मन-ही-मन कहा-''यह तुम्हारा अज्ञान है, जो तुम
मेरे साथ यह दुर्व्यवहार कर रहे हो! मैंने तो मुक्त-कण्ठ से अपना निश्चय
घोषित कर दिया है; पर मैं क्या करूं, जो हम एक-दूसरे की भाषा समझने में
असमर्थ हैं। लेकिन आचरण की भाषा भी क्या तुम न समझोगे? क्या तुमने कभी ऐसा
सांप देखा है, जो मार खाकर भी फन न उठाए? फिर, क्या तुम यह नहीं विश्वास
कर सकते कि मैं दूसरी तरह का हूं? मैं और सांपों से भिन्न हूं-मैं
तुम्हारा मित्र हूं?'' तभी किसी लोहे के पाश में उसका फन और मुंह जकड़ गया।
कोई उसे अपनी ओर घसीट रहा था। ''नहीं, नहीं, मैं आज यहां से नहीं जाऊंगा।
मैं तुम्हें अपने निश्चय का विश्वास दिलाकर रहूंगा। मैं यह नहीं सह सकता
कि तुम मुझे गलत समझते रहो!'' उसने मन-ही-मन कहा और अपनी सारी शक्ति से
मेज पकड़ ली।
पर जो हाथ उसे खींच रहे थे, वे उससे अधिक सशक्त थे। वह रोता-रिरियाता,
मन-ही-मन करुणा की प्रार्थना करता हुआ भी खिंचता चला गया और थोड़ी देर बाद
उसने देखा कि उसे एक छोटी सी हंडिया में बन्द कर, बाहर दूर ले जाकर, डाल
दिया गया है।
इस घटना के बाद जब उसने फिर समाधि लगा कर भगवान का स्मरण किया, तो उसे एक
नए और परम ज्ञान की उपलब्धि हुई। उसने जाना कि हर व्यक्ति जीवन में एक खास
पार्ट अदा करने के लिए बना है, जिससे उसे मुक्ति नहीं मिल सकती। अपनी
सामाजिक स्थिति के आगे व्यक्ति का निश्चय व्यर्थ है।
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