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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


फिर दालान, फिर बरामदा, फिर कमरे पार करता वह उस कमरे में पहुंचा,जहां रेडियो से बीन के स्वर निकल रहे थे। रेडियो से आने वाले क्षीण प्रकाश के अतिरिक्त सारा घर अंधकार में था। उसे लगा, अंधकार का यह प्रबन्ध गृहस्वामी ने सचमुच उसके स्वागत में ही किया था।

बीन अब भी बज रही थी। उसका मन एक नई आशा, एक नए मोह से आन्दोलित हो रहा था। वह मृदु-मंथर गति से बढ़ता हुआ, रेडियो की छोटी सी मेज पर चढ़ गया और कुण्डली मार कर, आराम से बैठ, अपना फन रेडियो से लगा दिया। अपने भोलेपन में वह यह सोच रहा था कि अभी इस बीन के स्वरों से निर्मित माया कक्ष के द्वार खुलेंगे और इसमें से मानव निकल कर अपनी भुजाओं में भर लेगा। पर जिस भुजा ने उसे स्पर्श किया, वह रेडियो के भीतर से नहीं, बाहर से आई, और ज्यों ही उसे स्पर्श की सिहरन महसूस हुई, त्यों ही वह मानवी भुजा तड़प कर अलग हो गई। पास में पड़े पलंग से एक छायाकृति धीमे-धीमे उठी और सहमते-सहमते न जाने किधर चली गई।

क्षण भर बाद सारा कमरा प्रकाश से भर गया। उसकी आंखें जलने लग गईं। बड़ी मुश्किल से वह देख सका कि एक मनुष्य दूर खड़ा उसे ताक रहा हे। उसके चेहरे का भाव पढ़ना तो उसके लिए असम्भव-सा था। फिर भी, न जाने क्यों, उसे लगा कि यह वह स्वागत नहीं है, जिसकी वह आशा बांधे था।

थोड़ी देर अगति रही। बीन बजती रही, वह सुनता रहा, और दूर खड़ा मनुष्य उसे घूरता रहा।

अरे! यह क्या! यह केवल उसका अनुमान ही था, या सत्य उसने आश्चर्य से देखा कि अब एक नहीं, बहुत से मनुष्य वहां जमा हो गए हैं और सब उसकी ओर उसी तरह घूर रहे हैं।

''आओ!''-उसने कहा ''आओ, मेरे पास आओ न! देखो, मैं तुम्हारे लिए कितनी दूर से, कितनी बाधाएं लांघ कर, यहां आया हूं। तुम्हारी बीन सुनकर भला मैं दूर रह सकता था? आओ, मैं तुम्हें प्यार करता हूं-मैं तुमसे घुल-मिल जाना चाहता हूं।''

पर जब सामने खड़े मनुष्यों की मुद्रा या चेष्टा में कोई अन्तर न पड़ा, तो उसे लगा कि उसकी बात उन तक नहीं पहुंची।
और तब, पहली बार उसे अपनी असमर्थता का ज्ञान हुआ। वह जो कुछ कहता था, उसका अर्थ था, उद्देश्य था; पर उसकी सारी कथा, उसके प्राणों का सारा निवेदन, मनुष्यों के निकट केवल निरर्थक फुफकार
बन कर रह जाता था। ''अब मैं क्या करू?''-वह सोचने लगा।

इतने में मनुष्यों की भीड़ में हलचल मची। उसे कठोर पुरुष स्वर भी सुनाई पड़े, पर उनका अर्थ समझने में वह भी उतना ही लाचार था। केवल उनकी भंगिमा से ही वह समझ सकता था कि जो कुछ कहा जा रहा है, वह उसके लिए प्रीतिकर नहीं है।

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