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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


जहरीला पार्ट


भारतभूषण अग्रवाल

उसका नाम तो कुछ न था, क्योंकि सांपों के नाम नहीं होते; पर नाम न होने पर भी उसका अस्तित्व था और अपने अस्तित्व का उसे पूरा ज्ञान भी था। पर यह ज्ञान ही मानो उसकी सबसे बड़ी समस्या थी, क्योंकि जब उसे लगता कि उसके अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया जा रहा है, तो उसे चोट लगती और वह तड़प उठता।

उसे मनुष्यों से बड़ा प्रेम था। आप चाहे इसका विश्वास न करें-असल में, उसे कभी भी ऐसा  मनुष्य नहीं मिला, जिसने उसकी इस बात पर विश्वास किया हो-फिर भी उसे मानव से प्रेम था। इसी कारण वह अकसर बिलबिला उठता था कि उसके अस्तित्व के बावजूद मनुष्य उसे क्यों नहीं मानते, या मानना नहीं चाहते, और क्यों उसका अपना प्रेम मानव मन में  प्रतिध्वनियां उत्पन्न नहीं करता। जब कभी वह मनुष्य के पास जाने की चेष्टा करता, तो या  तो मनुष्य ही भाग जाता, या फिर वह ऐसी तैयारियां करता कि उसी को भागना पड़ता। इस स्थिति में उसके त्रास का ठिकाना नहीं था।

और, तब एक दिन इस जटिल समस्या को सुलझाने के लिए उसने जमीन के नीचे प्रवेश कर समाधि लगाई और भूखा-प्यासा, भगवान का स्मरण करने लगा।
भगवान तो प्रकट नहीं हुए, पर उसके मन में ही एक नया ज्ञान जागा। उसने पाया कि मनुष्य उसका अस्तित्व मानता है, अन्यथा वह
उसे क्यों भगा देता है, या स्वयं ही भाग जाता है? इस ज्ञान से उसे कुछ आश्वासन मिला-उसका त्रास कुछ घट गया।
पर उसका मानव प्रेम और उसका प्रतिदान? वह फिर अचल-अटल वैसे ही समाधि लगा कर बैठा रहा।
स्वप्न, सुषुप्ति और न जाने कौन-कौन-सी अवस्थाएं पार कर लेने पर उसके मन में दूसरा ज्ञान उदित हुआ। उसके मन में प्रेम है, तो हुआ करे, पर उसके मुख में विष भी तो है। यह उसका विष ही है, जो उसे मानव से तिरस्कार दिलाता है।

ज्ञान की इस नई उपलब्धि ने उसका दर्द बहुत बढ़ा दिया। वह न जाने कितने दिनों तक भगवान का स्मरण करता, रोता-गिड़गिड़ाता रहा कि इस विष से निस्तार मिले, पर उसकी करुण पुकार निष्फल ही रही। और, तब उसने यह निश्चय किया कि वह अपने विष का कभी प्रयोग न करेगा। क्या यह देखकर भी कि मैं सम्पूर्ण भाव से समर्पित हूं, मानव से मुझे प्रतिदान नहीं मिलेगा? इस निश्चय से उसका मन हलका हो गया। वह प्राणों में एक नए आलोक का अनुभव करने लगा। कुछ दिन नियमित आहारादि से पुन: स्वास्थ्य लाभ कर वह अपने निश्चय पर दृढ़ होकर बस्तीद्वकी ओर चला। बस्ती के सीमान्त में ही एक बहुत बड़ा बंगला था। वह ज्यों ही उसके पास पहुंचा, उसे बीन पर मोहन राग बजता सुनाई दिया। खुशी के मारे वह उछल पड़ा। ''नहीं, नहीं, यह मेरा भ्रम है!''-उसने सोचा-''मानव भी मुझसे प्रेम करता है-वह मुझे बुला रहा है। वह जानता है बीन में मेरे लिए कितना आकर्षण है।'' और, राग के स्वरों की डोर से खिंचता वह अन्दर प्रविष्ट हुआ। पहले मुलायम घास मिली। ''सचमुच, मनुष्य कितना महान है!''-उसने सोचा-''मेरे लिए घर में भी कोमल घास की शय्या सजा रखी है।

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