कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ 27 श्रेष्ठ कहानियाँचन्द्रगुप्त विद्यालंकार
|
|
स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ
चायपान भी किसी विश्वविद्यालय से कम महत्व नहीं रखता। विश्वविद्यालय में भले ही केवल पुस्तकों पर मालिश होती हो, चायपान के अवसर पर विचारों का विनिमय होता है। चाय की घूंट और मौलिकता में वही सम्बन्ध है, जो कामा बैसिलिस और कालरा में है। गले के नीचे चाय उतरी नहीं कि विचार उबलते पानी की भांप की भांति निकलने लगते हैं। आप उन्हें रोक नहीं सकते। सुना करते थे कि अंगूर की बेटी में ही यह गुण पाया जाता है-ढालने पर विचार ढलने लगते हैं। परन्तु चाय में यह गुण कम नहीं है। वशिष्ठ तथा अनिरुद्ध के साथ मैं चाय पी रहा था। वशिष्ठ यहां एक डिग्री कालेज में अंग्रेज़ी के लेक्चरर हैं। पंजाब के निवासी हैं। विभाजन के बाद कानपुर में आकर बस गए। आर्यसमाजी होने के कारण प्रगतिशील विचारों के हैं। कहते हैं-हम मानव हैं, वैदिक धर्म मानते हैं। यों जाति के बढ़ई हैं। पर जाति आदि से क्या? सभ्य हैं, भले आदमी हैं। संस्कृत व्यक्ति हैं। इतना बहुत है। अनिरुद्ध वकील हैं। वकालत साधारण है। किसी प्रकार काम चल जाता है। किन्तु अभी है ही कितने दिनों की; पांच-छ: साल हुए-इतने दिनों में तो पुत्र भी पिता को अच्छी तरह पहचान नहीं पाता।
एक प्याला चाय समाप्त हो चुकी थी, दूसरे का आरम्भ था। अनिरुद्ध ने पूछा-''कल कोटि भास्करन के प्रदर्शन में आप गए थे?''
''मैं तो न जा सका, यद्यपि इच्छा मेरी थी।''-मैंने साधारण ढंग से कहा।
''मुझे ऐसी वाहियात बातों में विश्वास नहीं है।''-वशिष्ठ ने गम्भीरता से कहा। गम्भीरता उनके लिए वैसी ही थी, जैसे रक्त के लिए लाली होती है। वैज्ञानिक होने के कारण उन्हें गम्भीर बनना भी पड़ता था। यदि कोई वैज्ञानिक हास-परिहास करता देखा जाता है तो समझा जाता है कि उसने फैरेडे, न्यूटन, क्यूरी के नाम पर दाग लगा दिया। साइन्स वालों के लिए मुस्कराना वैसा ही समझा जाता है, जैसे गुलाबजल में नेपथलीन की महक आना। इस परिपाटी का निर्वाह वशिष्ठ महोदय बड़ी कला से करते थे। कुछ रुक कर उन्होंने कहा-''जो बात प्रयोग द्वारा सिद्ध नहीं होती, उस पर मूर्ख विश्वास करते हैं।''
मैंने कहा-''तुमने सुना तो है ही नहीं कि यह क्या कह रहा है; पर विरोध करने लगे। विज्ञान की यह भी कोई पद्धति है क्या?''
''मैं जानता हूं, यह क्या कहने वाला है।''-वशिष्ठ बोला।
''अच्छा, तो तुमने भौतिक विज्ञान ही नहीं, ज्योतिष का भी अध्ययन किया है। तुम जान जाते हो कि क्या होने वाला है?''-मैंने कहा।
''ज्योतिष आदि मूर्खों को ठगने के लिए हथकंडे हैं। मैं उन्हें सीखना अपना, विज्ञान का, बुद्धि का और मानव का अपमान समझता हूं।''-वशिष्ठ बोले।
''तब तुम कैसे कहते हो कि मैं जान गया, यह क्या कहेगा? इसकी बात तो सुन लेते।''-मैं बोला।
''यह तो साधारण-सा गणित है। दो और दो चार ही हो सकते हैं-तीन या पांच नहीं। ये महोदय कोटि भास्करन का व्याख्यान सुनने गए थे। वे क्या बोलते हैं, मैं जानता हूं। सो, समझ गया, ये क्या बताएंगे।''-वशिष्ठ ने भावुकता से कहा।
''अच्छा, तो चुपचाप सुनो, यह क्या कह रहा है।''-मैंने विनोदात्मक ढंग से कहा।
|
लोगों की राय
No reviews for this book