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कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ

27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


(2)

अगले दिन हम लोग जोगा की दुकान पर पहुंचे। वह एक छोटा एकमंज़िला कमरा था। उसका लड़का आग पर लोहे के टुकड़े को गरम कर बार-बार हथौड़े की चोटें उस पर मार रहा था। उस लाल लोहे से चिनगारियां उड़ रही थीं। फिर वह उस लोहे के टुकड़े को पानी में डालता और वह नाग के-से स्वर में फुफकार उठता। वह बढ़ा अब उस लोहे को देख कर सावधानी से परख कर बोला कि वह जर्मनी का नहीं है, विलायती है। जर्मनी वालों की तरह पक्का लोहा गलाना कोई नहीं जानता है। फिर सावधानी से उसकी जांच करके
बोला कि उसका पुर्जा कमजोर रहेगा, वह अधिक लचकदार होगा और ज्यादा दिन नहीं चलेगा। हमको देख कर बोला कि यह लोहा क्या मजबूत है-इससे अच्छा लोहा तो हमारी पहाड़ी खानों में पैदा हुआ करता था। हमारे पुरखे उसी से अपनी जरूरत की चीज़ें बनाया करते थे। फिरंगी ने आकर उन खानों को बन्द कर दिया और न जाने कहां से यह कच्चा लोहा भेज दिया है, जो हुमारे यहां की आबोहवा के लिए बेकार है। यह बहुत महंगा पड़ता है। हमारे लोहे के हथियार आज भी पुराने खानदानों के यहां पड़े होंगे। उनको देखने से पता चलेगा कि हमारा लोहा क्या था। एक बार दिल्ली के मुगल दरबार को यहां से कुछ हथियार बना कर भेजे गए थे, तो वहां के राजा ने सोचा कि यह देश बहुत अमीर है और इस पर चढ़ाई करने की ठहराई थी। लेकिन हमारा दीवान वहां गया और उसने वहां के राजा को बताया कि उनका देश बहुत गरीब है। इस पर मुगल बादशाह हंसा और बोला कि वहां तो सोने-चांदी के पहाड़ होते हैं। इस पर दीवान ने अपनी जेब पर से करेला निकाल कर बताया था कि इस तरह की ऊंचाई-निचाई है-खेत नहीं, बाग नहीं। बस, वह बादशाह बहुत खुश हुआ और उसी समय हुक्म दिया कि इधर कोई टैक्स न लगाया जाए।

हमें यह बताया जा चुका था कि जोगा हमारे इतिहास का एक बड़ा भंडार है और जब कभी कोई उसकी दुकान पर जाता है वह पुरानी बातें बता कर बड़ा समय ले लेता है। हमें उसकी बातों को सुनने का उत्साह उस समय नहीं था और शायद वह इस बात को समझ भी गया। उसने, बिना किसी भावुकता के वह मशीन ले ली और हँस कर बोला कि मशीन तो जर्मनी की है, पर उसका स्प्रिंग एकदम विलायती कच्चे लोहे का है। इन विलायत वालों को तो बस, दुकान-दारी करनी आती है कि रुपया कमाया जाए। कच्चा स्प्रिंग लगा दिया, जो कि जंग खा जाता है और फिर यदि कम्पनी से नया मंगाइए, तो बस, बीस रुपया-मानो वहां से हाथी-घोड़ा मंगवाया गया है। फिर हम लोगों को संबोधित करके वह बोला-फिरंगी हमें लूट रहा है। उसे खुद तो माल बनाना आता नहीं है, जर्मनी का माल अपने नाम से बेचता है।

लेकिन हमारे आगे तो उस ग्रामोफ्रोन की समस्या थी। हमारी उत्सुकता को जान कर वह बोला कि शाम तक टांका लग जाएगा। हम कुछ कहें इससे पहले ही उसने बताया कि एक रुपया मजदूरी होगी और आठ आना अग्रिम देना होगा क्योंकि मसाला खरीदना पड़ेगा। फिर उसने बताया कि कारोबार की हालत ठीक नहीं है और गुजर बड़ी कठिनाई से होती है। उसने यह भी कहा कि इस काम में पांच आने से अधिक की बचत नहीं है। टूटे स्प्रिंग पर टांका तो बड़ी कम्पनियां भी लगाना नहीं जानती हैं। उनका तो दो-टूक जबाब होता है कि स्प्रिंग बदला जाएगा। कम्पनी को तो अपना मुनाफा चाहिए। खरीदार की कोई परवाह उनको नहीं रहती है। यह मशीन भी बीस-तीस रुपये में तैयार हो सकती है। यदि उसके पास साधन होते तो वह इससे अच्छी मशीन बना सकता था। आवाज भरना नई बात थी, पर वह तो उसके पेशे की बात नहीं थी और न उसका उससे कोई सम्बन्ध ही था।

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