कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ 27 श्रेष्ठ कहानियाँचन्द्रगुप्त विद्यालंकार
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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ
पिता को ऐसी बातों पर रोष आ सकता था। पर इस बार वह गम्भीर हो गए। मन्द
वाणी में बोले-ईसा की वाणी पवित्र है, यथार्थ है। वह तुम्हारे मन में उतरी
है, तो मैं तुमको बधाई देता हूं और, फिर मुझे आगे नहीं कहना है।''
राजीव को तर्क चाहिए था। बोला-''आप तो कहते थे कि-''
पिता और आर्द्र हो आए, बोले-''मैं गलत कहता था। परम सत्य वह ही है जो
बाइबिल में है। भगवान तुम्हारा भला करे।'' कह कर वह उठे और भीतर चले गए।
राजीव विमूढ़ सा बैठा रह गया। उसकी कुछ समझ में न आया। जाते समय पिता की
मुद्रा में विरोध या प्रतिरोध न था। उसने सोचा कि मेरे आग्रह में क्या
इतना बल भी नहीं है कि प्रत्याग्रह उत्पन्न करे? या बल इतना है कि उसका
सामना हो नहीं सकता। उसे लगा कि वह जीता है। लेकिन जीत में स्वाद उसे
बिलकुल नहीं आया। वह आशा कर रहा था कि पैसे की गरिमा और महिमा सामने से
आएगी और वह उसको चकनाचूर कर देगा। उसके पास प्रखर तर्क थे और प्रबल ज्ञान
था। उसके पास निष्ठा थी और उसे सर्वथा प्रत्यक्ष था कि समाजवादी व्यवस्था
अनिवार्य और अप्रतिरोध्य होगी। पूंजी की संस्था कुछ दिनों की है
और वह विभीषिका अब शीघ्र समाप्त हो जाने वाली है। उसको समाप्त
करने का दायित्व उठानेवाले बलिदानी युवकों में वह अपने को गिनता था। वह यह
भी जानता था कि नगर के मान्य व्यवसायी का पुत्र होने के नाते उसका यह रूप
और भी महिमान्वित हो जाता है। उसे अपने इस रूप में रस और गौरव था। वह
निश्शंक था कि भवितव्यता को अपने पुरुषार्थ से वर्तमान पर उतारने वाले
योद्धाओं की पंक्ति में वह सम्मिलित है।
उसमें निश्चित धन्यता का भाव था कि वह क्रांति का अनन्य सेवक बना है। वह
तन-मन के साथ धन से भी उस युग निर्माण के कार्य में पड़ा था और उसके
वर्चस्व की प्रतिष्ठा थी। मानो उस अनुष्ठान का वह अध्वर्यु था।
लेकिन पिता जब संतोष और समाधान के साथ अपनी हार को अपनाते हुए उसकी
उपस्थिति से चुपचाप चले गए तो राजीव को अजब लगा। मानो कि उसका योद्धा का
रूप स्वयं उसके निकट व्यर्थ हुआ जा रहा हो। उसका जी हुआ कि आगे बढ़कर कहे
कि सुनिए तो सही, पर वह स्वयं न सोच सका कि सुनाना अब उसे शेष क्या है।
पिता उसे स्वस्ति कह गए हैं, मानों आशीर्वाद और अनुमति दे गए हों। पर यह
सहज सिद्धि उसे काटती-सी लगी। वह कुछ देर अपनी जगह ही बैठा रहा। तुमुल
द्वंद्व उसके भीतर मचा और वह कुछ निश्चय न कर सका।
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