कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ 27 श्रेष्ठ कहानियाँचन्द्रगुप्त विद्यालंकार
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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ
चौबीस घंटे राजीव मतिभूला-सा रहा। अगले दिन उसने पिता से जाकर कहा-''आज्ञा
हो तो मैं कल से कोठी पर जाकर काम देखने लग जाऊं।''
पिता ने कहा-'क्यों बेटा?''
''जी, और कुछ समझ नहीं आता।''
पिता ने कहा-''तुमने अर्थशास्त्र पढ़ा है। मैंने अर्थ पैदा किया है,
शास्त्र उसका नहीं पढ़ा। शास्त्र धर्म का पढ़ा है। ईसा की बात इस शास्त्र
की ही बात है। अर्थशास्त्र भी वही कहता है तुम जानो। मैं बी ए० से आगे तो
गया ही नहीं और अर्थशास्त्र की बारहखड़ी से आगे जाना नहीं। फिर भी वहां
शायद मानते हैं कि अर्थ काम्य है। राजीव बेटा, धर्म ने उसे काम्य नहीं
माना है। इसलिए उसकी निन्दा भी नही है, उस पर करुणा है। तुम शायद मानते
होगे, जैसे कि और लोग मानते हैं, कि तुम्हारा पिता सफल आदमी है। वह सही
नहीं है। ईसा की बात जो कल तुमने कही बहुत ठीक है। मैं उसको सदा ध्यान में
नहीं रख सका। तुमसे कहता हूं कि निर्णय तुम्हारा है। निर्णय यही करते हो
कि कोठी के काम को संभालो तो मुझे उसमें भी कुछ नहीं है। तुम्हारी आत्मा
तुम्हारे साथ रहेगी। मैं तो उसे सांत्वना देने पहुंच सकूंगा नहीं। उसके
समक्ष तुम्हें स्वयं ही रहना है इसलिए मैं तुम्हारी स्वतन्त्रता पर आरोप
नहीं ला सकता हूं। पर बेटे, मैं भूल रहा तो भूल रहा, धर्म की और इंजील की
बात को तुम अभी मत भूलना। इतना ही कह सकता हूं। समाजवादी हो, साम्यवादी
हो, पूंजीवादी हो, व्यवस्था कुछ भी हो, धर्म के शब्द का सार कभी खत्म नहीं
होता। न वह शब्द कभी मिथ्या पड़ता है। उसे मन से भूलोगे नहीं तो शायद कहीं
से तुम्हारा अहित नहीं होगा। हो सकता है समाज का भी अहित न हो। राजीव,
बहुत दिनों से सोचता रहा हूं। अब पूछता हूं कि हम लोग दोनों तुम्हारी मां
और मैं, अब जा सकते हैं कि नहीं। अपनी बहन सरोज के विवाह को तो ठीक-ठाक
तुम कर ही दोगे।"
राजीव ने कहा-''नहीं, नहीं, यह नहीं-"
पिता ने हँस कर कहा-''लेकिन इतना जिम्मा तुम नहीं उठा सकते, यह मानने वाला
मैं थोड़े हो हूं और-"
''वह तो ठीक है। लेकिन मेरा विवाह?''
तेरा!.. '''तो यह बात है। अच्छा-अच्छा!
राजीव ने उठ कर पिता के चरण छुए। पिता ने उसके सिर पर हाथ रखा। उनकी आंखों
में आंसू आ गए थे। राजीव भी गद्गद् था। उसे याद नहीं रहा कि कुछ वर्ष हुए
उसने घोषणा की थी कि पांव छूना गुलामी है, वह आदर देना नहीं है। तभी यह भी
निश्चय हुआ था कि विवाह में पड़ना मन्द और बन्द होना है। उन वर्षों को एकदम
मिटा कर कहां से कैसे यह क्षण उसके जीवन में आ गया था, किसी को पता न था।
लेकिन उस क्षण में जैसे अनन्त धन्यता भरी थी।
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