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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


वह क्षण  

जैनेन्द्र कुमार

"पैसा पात्र-कुपात्र नहीं देखता। क्या यह सच है?''
राजीव ने यह पूछा। वह आदर्शवादी था और एम.ए. और लॉ करने के बाद अब आगे बढ़ना चाहता था। आगे बढ़ने का मतलब उसके मन में यह नहीं था कि वह घर के काम-काज को हाथ में लेगा। घर पर कपड़े का काम था। उसके पिता, जो खुद पढ़े-लिखे थे, सोचते थे कि राजीव सब संभाल लेगा और उन्हें अवकाश मिलेगा। घर के धंधे पीटने में ही उमर गई है। चौथापन आ चला हैं और अब वह यह देख कर व्यग्र हैं कि आगे के लिए उन्होंने कुछ नहीं किया है। इस लोक से एक दिन चल देना है, यह उन्हें अब बार-बार याद आता है। लेकिन उस यात्रा की क्या तैयारी है? सोचते हैं और उन्हें बड़ी उलझन मालुम होती है। लेकिन जिस पर आस बांधी थी वह राजीव अपनी धुन का लड़का है। जैसे उसे परिवार से लेना-देना ही नहीं। ऊंचे खयालों में रहता है, जैसे महल खयाल से बन जाते हों।

राजीव के प्रश्न पर उन्हें अच्छा नहीं मालुम हुआ। जैसे प्रश्न में उनकी आलोचना हो। बोले-''नहीं, धन सुपात्र में ही आता है। अपात्र पर आता नहीं, आए तो वहां ठहरता नहीं। राजीव, तुम करना क्या चाहते हो?''
राजीव ने कहा-''आपके पास धन है। सच कहिए, आप प्रसन्न हैं?'' पिता ने तनिक चुप रह कर कहा-''धन के बिना प्रसन्नता आ जाती है, ऐसा तुम सोचते हो तो गलत सोचते हो। तुममें लगन है। सृजन की चाह है। कुछ तुम कर जाना चाहते हो। क्या इसीलिए कि अपने अस्तित्व की तरफ से पहले निश्चित हो। घर है, ठौर-ठिकाना है। जो चाहो कर सकते हो। क्योंकि खर्च का सुभीता है। पैसे तुच्छ समझ सकते हो, क्योंकि वहू है। मैं तुमसे कहता हूं राजीव पैसे के अभाव में सब गिर जाते हैं। तुमने नहीं जाना, लेकिन मैंने अभाव को जाना है। तुमने पूछा है और मैं कहता हूं कि हां मैं प्रसन्न नहीं हूं। लेकिन धन के बिना प्रसन्न होने का मेरे पास और भी कारण न रहता। तुम्हारी आयु तेईस वर्ष पार कर गई है। विवाह के बारे में इन्कार करते गए हो। हम लोगों को यहां ज्यादा दिन नहीं बैठे रहना है। तब इस सबका क्या होगा। बेटियां पराए घर की होती हैं। एक तुम्हारी छोटी बहन है, उसका भी ब्याह हो जाएगा। लड़के एक तुम हो। सोचना तुम्हें है कि फिर इस सबका क्या होगा। अगर तुम्हारा निश्चय हो कि व्यवसाय में नहीं जाना है, तो मैं इस काम-धाम को उठा दूं। अभी तो दाम अच्छे खड़े हो जाएंगे। नहीं तो मेरी सलाह यही है कि बैठो, पुश्तैनी काम संभालो, घर-गिरस्थी बसाओ। और हमको अब परलोक की तैयारी में लगने दो। सच पूछो तो अवस्था हमारी है कि देखें जिसे धन कहते हैं वह मिट्टी है। पर तुम में आकांक्षा है। चाहे उन्हें महत्वाकांक्षाएं कहो। महत्व की हो, या कैसी भी हो, आकांक्षा के कारण धन-धन बनता है। इसलिए तुमको उधर से विमुख मैं नहीं देखना चाहता। विमुख मैं स्वयं अवश्य बनना चाहता हूं। क्योंकि आकांक्षा अब शरीर के वृद्ध  पड़ते जाने के साथ हमें त्रास ही दे सकेगी। आकांक्षा इसी से अवस्था आने पर बुझ सी चलती है। तुमको आकांक्षाओं से भरा देखकर मुझे खुशी होती है। अपने में उनके बीज देखता हूं तो  डर आता है। क्योंकि उमर बीतने पर जिधर जाना है उधर की सम्मुखता मुझमें समय पर न  आएगी तो मृत्यु मेरे लिए भयंकर हो जाएगी। तुम्हारे लिए आगे जीवन का विस्तार है। मुझे  उसका उपसहार करना है और तैयारी मृत्यु की करनी है। संसार असार है यह तुम नहीं कह सकते। हां, मैं यदि वहां सार देखूं तो अवश्य गलत होगा। तुम समझते हो। कहो, क्या सोचते  हो?''

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