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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


''प्यारेलाल का इलाज करने में तो मुझे अधिक समय नहीं लगा, परन्तु उसे फिर से पत्नी के साथ घर बना कर रहने को तैयार करने में मुझे पूरे तीन साल लग गए। तीन साल के बाद यह जान कर मुझे सन्तोष हुआ कि प्यारेलाल अपनी पत्नी के साथ एक साधारण गृहस्थ का-सा जीवन बिता रहा है। प्यारेलाल की नौकरी तो जाती रही थी, इससे घर पर ही उसने नून-तेल-लकड़ी की एक छोटी-सी दुकान खोल ली थी। इस दुकान को चलाने में उसकी पत्नी भी उसे भरसक सहायता दे रही थी। दोनों तंगी में थे, पर जिस किसी तरह उनका जीवन निर्वाह हो ही रहा था।''
इतना कह कर डाक्टर रामपाल चुप हो गए। डाक्टर सक्सेना भी चुपचाप बैठे अपने मित्र की ओर देखते रहे। दो मिनट की चुप्पी के बाद डाक्टर रामपाल ने फिर से कहना शुरू कर दिया-
'आज से सिर्फ 25 दिन पहले की बात है। उस दिन भी सरदी बहुत अधिक थी। रात-भर पानी बरसता रहा था और सूर्योदय से पहले आकाश एकाएक स्वच्छ हो गया था। उस कड़ाके की सरदी में रजाई छोड़कर बाहर निकलने को जी न करता था। तभी एकाएक अपने मकान के सहन से किसी व्यक्ति के जोर-जोर से रोने का अत्यन्त करुण स्वर मुझे सुनाई दिया। यह अस्पताल है-मानसिक रोगों का ही सही। यहां मृत्यु का परिचय तो सम्पूर्ण बस्ती को है। पर उस रोदन में कुछ ऐसी द्रावकता थी कि सुनने वाला पसीज कर ही रहे।

'शीघ्रता से लबादा ओढ़ कर मैं सहन के बरामदे में निकल आया, तो देखा-वही पुलाव वाला प्यारेलाल! साथ के लोगों ने बताया कि वह कल सांझ से रो रहा है-उस समय से, जबकि उसकी पत्नी की चिता को लगाई गई आग एकाएक भड़क उठी थी। तब से अब तक वह लगातार इसी-तरह जार-जार रो रहा है। थक कर बीच में कुछ देर के लिए सो जरूर गया था। पर जाग्रत दशा में क्षण भर के लिए भी वह चुप नहीं हुआ। यह तो पूरी तरह स्पष्ट था कि प्यारेलाल फिर से पागल बन गया है।

'प्यारेलाल की इस बार की कहानी सचमुच बहुत करुण थी। जांच पड़ताल से मालूम हुआ कि वह बड़ी गरीबी से अपना जीवन-निर्वाह कर रहा था। पर उसके आचरण से किसी को कोई शिकायत नहीं थी। अब वह पहले की अपेक्षा कहीं अधिक शान्त और भला-मानस माना जाता था। उसकी पत्नी का स्वभाव भी बदल गया था। प्यारेलाल की बीमारी के दिनों में उसके भाई-बन्दों ने उसका साथ नहीं दिया था। इस लम्बी कष्ट-परीक्षा में वह बेचारी प्यारेलाल से भी अधिक कमजोर हो गई थी। प्यारेलाल को तो फिर भी पागलखाने से अच्छा-खासा भोजन मिलता रहता था, पर उसकी पत्नी लगातार बहुत तंगी और अभाव में रही थी।

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