कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ 27 श्रेष्ठ कहानियाँचन्द्रगुप्त विद्यालंकार
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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ
''मनुष्य के भौतिक शरीर के अतिरिक्त उसका जो-कुछ भी अस्तित्व है; मन,
बुद्धि, चित्त, अहंकार-यहां तक कि आत्मा भी-उन सबको मैं मनुष्य का
आध्यात्मिक व्यक्तित्व कह रहा हूं। मगर मुश्किल तो यह है, कि उन सबमें से
कुछ भी तो पकड़ में नहीं आता। जो पकड़ में आता है, वह सब देर या सवेर उसी
तरह भौतिक सिद्ध हो जाता है, जिस तरह मैलंकोलिया स्नायवीय श्रेणी की एक
बीमारी सिद्ध हो गई।''
मगर डॉक्टर रामपाल जैसे अब सक्सेना की बात ही न सुन रहे थे। डॉक्टर
सक्सेना की चाल कारगर हो गई थी और वह अपनी पैनी बातों से रामपाल को ठीक
मूड में ले आए थे।
दो-चार क्षण दोनों मित्र चुप-चाप बैठे रहे। इस चुप्पी को पागलखाने के
दरवाजे से आने वाला हास्य-मिश्रित आर्तनाद और भी अधिक तीव्र बना रहा था।
उसके बाद डॉक्टर रामपाल ने धीरे-धीरे कहना शुरू किया-''मनुष्य के
आध्यात्मिक व्यक्तित्व की चिन्ता मुझे नहीं है, सक्सेना! वह तो लम्बी
साधना का क्षेत्र है। मुझे तो कभी-कभी यह देख कर बहुत बड़ा विस्मय होता है
कि एक ही मनुष्य के भीतर समान शक्ति के दो परस्पर-विरोधी व्यक्तित्व किस
प्रकार छिपे रहते हैं!''
डॉक्टर सक्सेना ने बड़ी उत्सुकता से कहा-''केस-हिस्ट्री, रामपाल!
केस-हिस्ट्री!''
''अच्छा, तो केस-हिस्ट्री ही सुनो।'' और, डॉक्टर रामपाल ने कहना शुरू
किया-''लगभग 5 वर्ष हुए, एक दिन प्रातःकाल एक नए पागल को मेरे पास लाया
गया। एक अच्छा-भला नौजवान 'पुलाव गरमा-गरम! मटर-पुलाव गरमागरम!' की पुकार
लगाते-लगाते मेरी तरफ आ रहा था और उसके साथ गमगीन-सी शक्ल में दो-चार
स्त्री-पुरुष थे। वह नौजवान कुछ ऐसे अंदाज से 'गरम-पुलाव' की पुकार लगाता
था कि यह समझना कठिन था कि वह 'मटर-पुलाव' कह रहा है या 'मटन पुलाव'; मगर
मिनट-भर में सम्पूर्ण पागलखाने का ध्यान उस नौजवान ने अपनी ओर जरूर खींच
लिया।
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