डॉक्टर रामपाल के कमरे के सामने मखमली घास से मढ़ा हुआ खुला सहन है, जिसके
चारों ओर रंग-बिरंगे गुलाब महक रहे हैं। इस मैदान में दो आराम कुर्सियां
डलवा कर दोनों मित्र जम कर बैठ गए। जनवरी का महीना था और आकाश-भर में एक
हल्की-सी धुन्ध छाई हुई थी। 11 बज जाने पर भी धूप में गरमी का नाम तक नहीं
था। दूर पर पागलखाने का बड़ा फाटक था, जहां बीसों मानसिक बीमार सींकचों के
पीछे से अपने रिश्तेदारों से मिल रहे थे। वहां हास्य तथा रुदन-मिश्रित
विविध स्वरों का जो ऊंचा कोलाहल हो रहा था, वह इन दोनों मनोवैज्ञानिकों के
विचार-विनिमय के लिए जैसे बहुत ही उपयुक्त पृष्ठभूमि उपस्थित कर रहा था।
डॉक्टर सक्सेना ने अपने दोस्त से पूछा-''कुछ पढ़ते-लिखते भी रहते हो,
मित्र?''
रामपाल ने कहा-''पढ़ने-लिखने की फुरसत ही किसे मिलती है।''
डॉक्टर सक्सेना ने रूस, अमेरिका, इंग्लैड और फ्रांस के जगत-प्रसिद्ध
मनोवैज्ञानिकों की नई किताबों के सम्बन्ध में पूछा, तो मालुम हुआ कि
डॉक्टर रामपाल का उन नामों से परिचय तो ज़रूर है, मगर उन्होंने उनमें से
किसी एक की भी कोई नई किताब नहीं पढ़ी। इस पर डॉक्टर सक्सेना ने संसार के
मनोविज्ञान-सम्बन्धी प्रसिद्ध पत्रों के कतिपय महत्वपूर्ण लेखों का
जिक्र किया। ये लेख डॉक्टर रामपाल की निगाह से ज़रूर गुजरे थे,
परन्तु पढ़ने की फुरसत उन्हें इन लेखों के लिए भी न मिल पाई। डॉक्टर
सक्सेना ने कहा-''दोस्त, आखिर तुम पूरी तरह मुफस्सिल के आदमी ही बन कर रहे
न! याद है, मैं कहा करता था कि रामपाल 'जीनियस' तो जरूर है, मगर है बस,
कुएं का मेढक ही!''
सक्सेना की इस बात की हँसी में रामपाल ने दिल खोल कर सहयोग दिया और जैसे
सफ़ाई के तौर पर कहा-''गीता में लिखा है न, कि चारों तरफ़, मीलों तक मधुर,
स्वच्छ और शीतल पानी भरा रहने पर भी एक समझदार मनुष्य के लिए उतना ही पानी
काम का है, जितना वह पी सकता है! सो, भाई सक्सेना, मैं भगवान कृष्ण के इसी
सिद्धान्त का कायल हूं।''
डॉक्टर सक्सेना ने गम्भीर होकर कहा-''देखो रामपाल, अब तुम बूढ़े होने पर आ
गए। नहीं तो, मैं तुमसे कहता कि चाहे और जिस 'विज्ञान' पर दृष्टि फेरो, इस
बेचारे 'मनोविज्ञान' को छोड़ दो!''
''मनोविज्ञान इतना बेचारा कब से बन गया मित्र?''
''जब से तुम्हारे जैसे उपासक उसे मिले। खैर, मज़ाक की बात छोड़ो। यदि कहीं
आज मैं फिर से अपने जीवन का प्रारम्भ कर सकूं, तो मैं मनोविज्ञान की
अपेक्षा जीव-विज्ञान को अपना विषय चुनूंगा।''
डॉक्टर रामपाल भी अब सचमुच गम्भीर हो गए और उन्होंने उत्सुकता से
पूछा-''वह क्यों?''
''वह इसलिए कि जिन तत्वों को हम 'मनोजगत' के स्तर का मानते हैं, वे तत्व
भी बाद में भौतिक जगत के तत्व सिद्ध हो जाते हैं। सच बात तो यह है, कि
मनुष्य के आध्यात्मिक व्यक्तित्व के सम्बन्ध में अभी तक हमारी जानकारी
इतनी कम है, जितनी कि प्रागैतिहासिक काल में भौतिक विज्ञान के सम्बन्ध में
थी-जब मनुष्य आग को संसार का सबसे बड़ा चमत्कार समझा करता था।''
''पर इस परिस्थिति से हम निराश क्यों हों, सक्सेना?''
''इसलिए कि मनोविज्ञान को साधक भी मिले हैं, तो तुम्हारे जैसे!''
''यह लेक्चरबाजी छोड़ो, सक्सेना। यह बताओ कि मनुष्य के आध्यात्मिक
व्यक्तित्व से तुम्हारा अभिप्राय क्या है?''
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