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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ



पुलाव और सरदी!

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

डॉक्टर सक्सेना पागलखाने के बड़े डॉक्टर के कमरे के सामने पहुंच कर कुछ रुके ही थे कि चपरासी एक चिट और पेन्सिल उनके सामने ले आया। परन्तु उसकी नितान्त उपेक्षा कर  डॉक्टर सक्सेना चिक उठा कर एकाएक अपने पुराने मित्र के कमरे के भीतर पहुंच गए और बोले-''कहो, क्या हाल है, मित्र रामपाल?''
डॉक्टर रामपाल सहसा चौंक कर खड़े हो गए। आश्चर्ययुक्त आनन्द के साथ उन्होंने कहा-''अरे  यार, तुम हो-सक्सेना? इतने बरसों के बाद इस तरह बिना किसी पूर्व सूचना के तुम से कभी यों भेंट हो जाएगी, इसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था।''
डॉक्टर सक्सेना ने हँसते-हँसते कहा-''बात यह है दोस्त, कि पागलखानों के डॉक्टर आम तौर से खुद भी पागल बन जाते हैं। पूरे नहीं, तो आधे ही सही। फिर, तुम तो भाई, 27 बरसों से पागलखानों के 'बड़े' डॉक्टर हो। सो मैं यह देखने आया था कि तुम्हारे पूरी तरह पागल बन जाने में अब कितनी कसर बाकी है! इस काम के लिए भला मैं पूर्व सूचना किस तरह भेजता?'' -डॉक्टर सक्सेना की हँसी इतनी अधिक बढ़ गई थी कि उनकी बात समझना भी कठिन बनता जा रहा था।
मगर डॉक्टर रामपाल ने बड़ी गम्भीरता से इतना ही कहा-''मालूम है, इतना अचानक तुम्हें यहां देखकर मैंने क्या समझा था?''

''क्या?''
''आज सुबह-सुबह यह कौन नया पागल यहां भरती होने के लिए लाया गया है, जिसकी शक्ल और आवाज, दोनों मेरे मित्र सक्सेना से इतना अधिक मिलती है।''
खूब खुल कर हँस लेने के बाद दोनों मनोवैज्ञानिक मित्र कामकाज की बातें करने लगे। डॉक्टर सक्सेना देश के ख्याति प्राप्त मनोवैज्ञानिकों में हैं और नए अनुसन्धान के लिए देश के बड़े-बड़े पागलखानों का दौरा कर रहे हैं। डॉक्टर रामपाल उनके सहपाठी रहे हैं और दोनों की मित्रता बहुत पुरानी है।

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