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आज बड़ी गरमी थी। रात करवटें बदलते ही बीती थी। सैर के लिए सुशीला उठी, तो
सिर भारी हो रहा था। सोचा, लाओ, थोड़ा यू-डी-कोलोन ही मलूं। दूसरे कमरे
में जा बिजली जलाई। श्रृंगार-मेज पर रखी शीशी उठाने लगी, तो उसमें लगे
दर्पण में दिखा धोती सिर पर से फटी है। वैसे तो अभी अंधेरा ही था, कौन
देखता है? परन्तु लौटने तक उजाला हो जाता है। कहीं कोई इनका परिचित ही मिल
गया, तो सोचेगा-हैडक्लर्क की पत्नी है, फटी धोती पहने है। अलगनी पर टंगी
रंगीन वाइल की साड़ी उतार कर पहनने लगी, तो ब्लाउज पर दृष्टि गई। लाओ, इसे
भी बदल लूं-इस साड़ी के साथ मैला दिखाई पड़ता है। और फिर, कन्धे से जरा बाल
भी संवारे। मुंह पर तनिक-सी क्रीम भी मली, बिन्दी भी लगाई और बिन्दी का
गीलापन जो उंगलियों में लग गया था, होंठों पर रगड़ लिया। शीशे में देखा,
पीला-सूखा चेहरा जरा निखर आया था। अपने आपको ही कुछ अच्छा-अच्छा लगा। अब
इन कपड़ों पर पुरानी चप्पलें क्या पहनें। सैण्डल निकाले और पहन
कर बाहर आ गई। हवा लगी तो यू-डी-कोलोन से मिल कर माथे का दर्द उड़-सा गया।
सूनी सड़क पर चलते चलते शीशे में देखे (बिन्दी के लाल) अपने ही होंठ उभर
आए। कभी उसके होंठ असल में भी वैसे ही थे, तभी तो...तभी तो...!
कान के पास कोई साइकिल-चाला घण्टी बजाता झट से निकल गया, तो सुशीला सजग
हुई। उसे अपने पर ही हँसी आ गई। आज वह किस धुन में इस सड़क पर
निकल आई थी। खैर, आज इधर ही सही। यह नगर का राजमार्ग नहीं था। छोटी बस्ती
की लम्बी-पतली सड़क थी। दोनों ओर टीन से छाई या ईंटों से बनी छोटी
दुकानें, सस्ते ढाबे थे। सड़क के किनारे चारपाइयां बिछाए कितने ही व्यक्ति
सो रहे थे। दुकानों के चबूतरों पर भी कुछ बच्चे नौकर लुढ़के पड़े थे। एक-दो
पक्की हवेलियां भी बीमार जिस्म पर खूबसूरत गहनों की तरह सिर उठाए खड़ी थीं।
इक्का-दुक्का व्यक्ति कभी सड़क पर से गुजर भी जाता था। सुशीला सड़क पूरी कर
मुड़ने लगी, तो जैसे उसे अपने कानों पर विश्वास न आया। कोई कह रहा
था-''मेरी जान! सवेरे सवेरे?'' सुशीला सिहर गई। देह का ठंडा पड़ा
रक्त तेजी से दौड़ पड़ा। उसने अकचका कर इधर-उधर ताका। सामने जिस छोटी दुकान
पर हिमालय टेलरिंग हाउस' का धुंधला बोर्ड लगा था, उसी के चबूतरे पर
धारीदार पायजामा और नीले चैक की कमीज पहने कोई व्यक्ति खड़ा दातून कर रहा
था। अच्छा गोरा-चिट्टा लम्बा-चौड़ा, तीस-बत्तीस की आयु का होगा। सुशीला को
उधर ताकते पाकर उसने कहा-''हाय री जालिम, निगाहें!''
और सुशीला आगे बिना कुछ सुने घर की ओर उल्टे पांवों भागी! भागती ही गई!
उसकी सांस फूल रही थी। मन में सोच रही थी, कोई मुझे देखकर क्या कहेगा?
परन्तु अपने द्वार पर आकर ही उसके पांव रुके। भीतर गई। सभी सो रहे थे। वह
सीधी दूसरे कमरे में गई और श्रृंगार-मेज के पास बिछी चटाई पर धप् से बैठ
गई। ना बाबा, आज से वह कभी अकेली सैर को नहीं जाएगी। देखो तो मुए को। मैं
भी क्या कल की लड़की हूं, जो आवाजें कसने लगा। वह वहीं लेट गई, पर आज दौड़
कर आने पर भी उसे कमजोरी नहीं लग रही थी। कोई उसके मन में कह रहा था-अभी
भी उसे एक पहरेदार की जरूरत है! वह बूढ़ी नहीं हुई है! फुर्ती से उठकर वह
श्रृंगार-मेज के दर्पण के सामने खड़ी हो गई। देखा, आज उसके गाल कुछ अधिक
लाल हैं। आंखें अधिक चमकीली हैं। होंठों में ताजगी है। बस, सिर्फ यह देह
दुबली है। उंह! वह वहां से हट आई! जरा तन्दुरुस्त हो जाऊं, तो देह भी भर
जाएगी।
प्रतिदिन की भांति आज सुशीला को 'सुबह की कमजोरी' महसूस नहीं हो रही थी।
रात की उलझी लटों को खोल, कंघा फेरती हुई,
वह किसी पुराने रसगीत की कड़ी गुनगुनाती आंगन में टहलने लगी।
कल से वह उन्हें साथ लेकर सैर करने जाया करेगी। न बाबा, ये मुए!
सुशीला अब जल्दी-जल्दी स्वस्थ हो रही है। वह अभी तक युवती है और अभी काफी
समय तक युवती बने रहने का उसने निश्चय कर लिया है।
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