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दो बार सुभाष को जगाया, पर कुनकुना कर वह फिर सो गया। सुशीला का जी हुआ न
जाए। इतनी दवा खाती है इन्जेक्शन भी लिए हैं, पर जब खून बनता ही नहीं,
कमजोरी दूर ही नहीं होती, तो सवेरे की सैर में क्या अमृत घुला है? पर पति
उठ कर दुखी होंगे, कहेंगे-''पानी की तरह पैसा इलाज में जा रहा है। परन्तु
डॉक्टर की बात नहीं मानतीं। सुबह की सैर को नहीं जातीं, तो आराम कैसे
आए?'' द्वार से झांका, आकाश में अभी तारे अपने मन्द पड़ते प्रकाश से धरती
को निहार रहे थे उदास, फीका पड़ता चांद भी एक कोने में दुबका हुआ था। पूरब
की ओर का आकाश कुछ-कुछ सफेद हो चला था। सवेरा होने में आध घण्टे
की देर थी। दिन चढ़ जाने से एक तो सड़कों पर भीड़ बढ़ जाती है और फिर घर का
काम किस समय होगा।
दवा के कड़वे घूंट की भाँति सुशीला ने इस बीस मिनटकी सैर को भी निगल जाना
ही उचित समझा। पैरों में चप्पल डालीं और द्वार धीरे से बन्द कर बाहर आ
गईं। हवा में ताजगी थी। परन्तु यों अकेले पागलों की भांति सड़कों पर घूमना
उसे तनिक भी नहीं रुचा। इक्के-दुक्के सैर के शौकीन बूढ़े बेंत हिलाते
इधर-उधर आ-जा रहे थे। पड़ोसी के कैंटीन का छोकरा अंगीठी में कोयले सुलगा
रहा था। सुशीला ने जल्दी-जल्दी सड़क पार की और उजाले की फूटती हलकी रेखाओं
में वह युक्लिप्टस रोड पर आ गई। सैर करने को यह सड़क बहुत अच्छी है। पक्की,
साफ-सुथरी, दोनों ओर ऊंचे-ऊंचे युक्लिप्टस के पेड़, दूर-दूर बसे दो-चार
कोठी-बंगले। परन्तु अकेले चलते उसे न जाने कैसा लग रहा था। यह गम नहीं था
कि इस सवेरे के झुटपुटे में कोई उसके पीछे लग कर घर तक पीछा करेगा, या
चलते हुए जान-बूझ कर कोहनी मार जाएगा। क्या देखकर किसी के मन में यह सुरूर
उभरेगा? फिर भी भय मुक्त शंका रहित सुशीला बड़ी मजबूरी से यह सैर
का घूंट निगल रही थी। सड़क खत्म हो गई और चौराहा आया। वह लौट पड़ी। शहर की
गुंजान सड़कों पर जाने से क्या लाभ? छ: बजे वह घर आ गई। अभी कोई नहीं जागा
था। द्वार उसी प्रकार उढ़के हुए थे। प्रात:कालीन वायु ने उसके मस्तिष्क
में जरा सी स्फूर्ति अवश्य दी थी। परन्तु उस स्फूर्ति की अपेक्षा उसके
पांवों की थकन अधिक थी। बड़ी कमजोरी लग रही थी। वह चुपचाप मुन्नी के खटोले
के पांयते लुढ़क गई। आहट से मनोहरलाल की आंख खुली। अंगड़ाई ले, सुस्ती दूर
करते हुए, उन्होंने पूछा-''सैर कर आईं?''
पत्नी ने सिर हिला कर हामी भर दी।
''कैसा लगा?'' पर सुशीला कुछ नहीं बोली। मनोहर उसी रौ में कहते गए-''अब
बिला नागा जाया करना। देख लेना, फायदा जरूर होगा।'' और, पत्नी को निढाल
पड़ी देख इतना और जोड़ दिया- ''भई, अकेले न जा सको, तो मुझे जगा लिया करना।
इस बहाने मेरा भी घूमना हो जाया करेगा।''
तीन-चार दिन निकल गए। सुशीला अकेली ही सैर को निकल जाती। एक-आध बार मनोहर
को जगाने की इच्छा हुई भी, तो यह सोच कर रह जाती, कि रात देर तक जाग कर
दफ्तर का काम करते हैं, फिर गरमी और मच्छरों से परेशान रहते हैं-सवेरे की
ठंडक में
सोए हुए हैं, तो अब मुंह-अंधेरे क्या उठाऊं? सड़क पर शेर-भालू थोड़े ही होते
हैं, जो मुझे खा जाएंगे? और मेरी इस सैर से कोई फायदा भी तो दिखता नहीं।
दस-पांच दिन देखती हूं, फिर बन्द कर दूंगी। वह अपनी उभरी नीली नसों वाली
पतली बाहों को ताकती और फिर चप्पल घसीटती निकल पड़ती।
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