कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ 27 श्रेष्ठ कहानियाँचन्द्रगुप्त विद्यालंकार
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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ
सुशीला को लगा, उसकी वह सवेरे की कमजोरी अब आज 'दोपहर की कमजोरी' भी बन गई
है। माथा थाम कर वह वहीं चटाई पर लेट गई। लेटे-लेटे सोचा-अभी चार-पांच साल
पहले तक वह जब भी गली-बाजार में निकल जाती थी, हमेशा इसी बात का खटका लगा
रहता था कि कहीं कोई बोली-ठोली न मार दे। भीड़ में जान-बूझ कर धक्का न दे
दे। 'मुए, तेरे मां-बहन नहीं है' की गाली तो सुशीला ने न जाने कितनों को,
कितनी बार दी है। कैसी मुसीबत थी उन दिनों, पर इधर तो याद नहीं आता, कब
से, कितने दिनों से, उसने यह सब नहीं सुना। न जाने क्यों सुशीला का मन हुआ
कि काश, वे दिन फिर लौट आते। उसे अपने मोहल्ले के गणेश की गाई पंक्ति याद
हो आई, जिसे यह उसे अकेली पाकर गा उठता था-''जानी, जोबना पे इतना
न इतराया करो-ओ!'' कितना क्रोध आता था उसे गणेश पर। जी
होता था, कि मरे का मुंह झुलस दे। और, मुंह ग झुलस पाने की असमर्थता को वह
अपने गले के आंचल से अपने को दाब-ढंक कर सिर नीचा करके, कतरा कर निकल जाने
में पूरा करती थी। साथ ही, छोटे की याद भी आ गई। वह तो उसे देखते ही 'हाय
री पटाखा!' कह कर छाती पर हाथ रख लेता था। वह उसे देखते ही झट से किवाड़
बन्द कर लेती थी। आज उन पुरानी स्मृतियों की रेखाएं उभर आईं, तो सुशीला
सोचने लगी-'क्यों मुझे उस पर इतना क्रोध आता था? उन बेचारों का कुसूर ही
क्या था?'' उस समय की वह गहराई, कच्ची लम्बी-सी भरी-भरी देह, गोल-मांसल
कलाइयां और फूली-फूली खूब लाल सिकी कचौरी से गाल-ओंठ मानो पके हुए करौंदे
हों। क्या जवानी चढ़ी थी उसे भी! बोली-ठोली मारने वालों को ही क्या दोष
दिया जाए। खैर, अब तो इधर मुद्दतों से मुसीबत दूर हो गई। उसने माथे पर बल
देकर सोचा-'अब इधर तो कभी किसी ने इतना भी नहीं कहा कि चलिए देवी जी, मैं
पहुंचा दूं?'' कमजोरी बढ़ती जा रही थी। सुशीला भूखी-प्यासी वहीं चटाई पर सो
गई।
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