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कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ

27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


दफ्तर को चलने के लिये तैयार हो, मनोहर बाबू ने रसोईघर के द्वार पर खड़े हो, नित्य की भांति, प्रश्न किया-''आज तबीयत कैसी है?''
''अच्छी ही है!''-सुशीला ने भी पुराना उत्तर दोहराया।
''देखो, दवा समय पर ले लिया करो। बीच-बीच में दवा छोड़ देती हो, तभी रोग नहीं जाता। और हां, डॉक्टर ने कहा है कि प्रात: काल मील-आध मील टहल आया करो, तो जल्दी ही स्वास्थ्य संभल जाएगा।''
सुशीला ने तवे पर अन्तिम फुलका छोड़ते हुए आलस भाव से कहा-''हूं!''
पति ने तनिक खीझ से कहा-''तुम तो किसी बात पर ठीक-ठीक अमल ही नहीं करतीं। जरा सूरत तो देखो, कैसी होती जा रही है। कल से सवेरे टहलने अवश्य जाया करना।''
''लेकिन किसके साथ जाऊं?'' इस बार सुशीला ने मुंह ऊंचा किया-''तुम तो सात बजे से पहले उठते ही नहीं।''
किसके साथ? यह तो मनोहर बाबू ने सोचा ही नहीं था। दो क्षण रुक कर बोले-''सुभाष को जगा लिया करो। उसका भी टहलना हो जाया करेगा। और, न हो, तुम अकेली ही जा सकती हो।...अच्छा तो चलू। शाम को कुछ देर से लौटूंगा। बाबू श्यामलाल के यहां चाय पार्टी है।'' कहते-कहते मनोहर बाबू साइकिल पकड़ कर बाहर चल दिए।
सुशीला का मन न जाने क्यों, खीझ से भर गया। कुछ बात भी नहीं है। पोते ने कोई कड़ी बात नहीं कही-कभी भी नहीं कहते, बल्कि जब से वह बीमार रहने लगी है, तब से तो वे सभी बातों में सतर्क रहने लगे। डॉक्टर ने कहा है, अब दो-चार वर्ष सन्तान नहीं होनी चाहिए। और, सुशीला जानती है, इधर चार महीनों से मनोहर बाबू इस बारे में कितने सतर्क हैं। ऐसा भला पति दुनिया में किसे मिलता है। पति के प्रति मन में वह अत्यन्त कृतज्ञ है। परन्तु इस समय केवल इतनी ही बात पर उसका मन रोष से, खीझ से, भर उठा। कैसे सहज भाव से कह दिया-न हो, सैर करने अकेली ही चली जाया करो।' अकेली! ठीक है, मैं अब बूढ़ी हुई। नीली नसें उभरी हुई अपनी गोरी (या हल्दी-सी पीली) बाहों को देख कर उसने सोचा-''क्या बचा है अब मुझमें? एक पहरेदार साथ लगा कर वह क्या करेगी?'' हां, फागुन से उनतीसवां शुरू हो गया। तीस के बाद तो औरत बूढ़ी हो ही जाती है-बूढ़ी! कब, किस प्रत्याशित क्षण में समय राक्षस ने उसका यौवन चुरा ही लिया। रसोई वैसी छोड़ कर वह कमरे में आ गई। वैसी ही सिलवटें-पड़ी मैली धोती पहने वह श्रृंगार मेज के सामने जा खड़ी हुई। नाक पर जगह-जगह कालिख लगी हुई थी। गाल पिचके, आंखें निस्तेज। तो वह बूढ़ी हो गई है! इसी से इन्हें मुझमें कोई आकर्षण नहीं प्रतीत होता। इन्हें क्या, शायद किसी के लिए भी कोई आकर्षण शेष नहीं रहा।

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