तब से फिर कभी उन पहाड़ों के दर्शन उसे नहीं हुए। पूरे दस वर्ष बीत चुके
थे। तब की स्थिति में और आज की स्थिति में कितना बड़ा अन्तर आ
गया, वह यही सोच रही थी। गर्मी के दिन थे, दोपहर का समय था। भीतर से
दरवाजा बन्द करके वह फर्श पर लेटी हुई थी। उसका पति दफ्तर में
था और वह घर पर अकेली थी। पति कमलापति जहाज की किसी कम्पनी के
माल के दफ्तर में एक साधारण क्लर्क की हैसियत से काम करता था। लड़ाई
के जमाने में उसने दूसरे कर्मचारियों के साथ मिल कर हजारों
रुपया कमाया था। तब अन्धाधुन्ध और बेहिसाब का माल सिपाहियों के लिए बाहर
जाता था और आता था। उसकी लूट भी बीच में उसी अन्धाधुन्ध तरीके से होती थी।
कमलापति मालामाल बन गया था-शराब में, जुए में और दूसरे अपकर्मों
से दोनों हाथों से रुपये लुटाता था। उन्हीं दिनों उसके पहले विवाह की
स्त्री की मृत्यु हो गई। दूसरा विवाह करने के लिए वह घर गया। उसने अपने
आदमियों से कहा कि वे एक अच्छी लड़की ढूंढ़ें और इस बात की तनिक भी परवाह न
करें कि लड़की के घरवाले गरीब हैं या धनी, सामाजिक दृष्टि से ऊंचे हैं या
नीचे। लड़की सुन्दर चाहिए,
बस। फलस्वरूप रुक्मा का आविष्कार हुआ। वह वास्तव में बहुत सुन्दर थी। वह
स्वयं भी प्रति दिन सखियों के मुंह से अपने रूप की प्रशंसा सुनते रहने और
स्त्री-पुरुषों की ललचाई आंखों को अकसर अपनी ओर गड़ी हुई देखने से यह जान
चुकी थी कि उसके चेहरे में कुछ विशेषता है। जो भी हो, एक दिन कमलापति
स्वयं अपनी आंखों से देखने के लिए बढ़िया सूट-बूट और कालर-टाई से सुसज्जित
होकर, एक छड़ी हाथ में लेकर, जब रुक्मा के गांव पहुंचा, तब रुक्मा अपनी
गाय के लिए घास का एक गट्ठर सिर पर लाद कर जा रही थी। उस दिन की याद
रुक्मा को अच्छी तरह थी। उसने कमलापति को देख कर समझा था कि कोई बड़ा
सरकारी अफसर होगा वह सहम गई थी और, भय से कांपने लगी थी। भय का कारण वह
स्वयं नहीं जानती थी। और, जब उसने देखा था कि उस 'अफसर' के साथ
के दो आदमी उसी की ओर उंगली से इशारा कर रहे हैं, तब तो उसके भय का ठिकाना
न रहा था। धड़कते हुए हृदय से तेजी से अपने घर की ओर भागी थी।
कमलापति को पहली ही दृष्टि में वह पसन्द आ गई। वह उसके चाचा से मिला।
रुक्मा के माता-पिता दोनों ही बहुत ही पहले गुजर चुके थे। उसके चाचा और
विधवा फूफी ने उसे पाल-पोसकर बड़ा किया था। वे लोग बहुत ही साधारण किसान
थे। उस दिन केवल मिलना ही हुआ। उसके बाद एक दिन कमलापति के आदमियों ने
विवाह की बातचीत चलाई, तब तक चाचा को अपने भाग्य पर पहले विश्वास नहीं
हुआ। वर की उम्र लड़की से प्राय: ढाई गुणा अधिक जान कर भी उनके उत्साह में
कमी नहीं आई। पढ़ा-लिखा, पैसेवाला, उन लोगों की अपेक्षा कई गुणा अधिक ऊंचे
कुलवाला वर उन लोगों को कहां मिलता? फलत: शादी तत्काल तय हो गई और रुक्मा
जल्दी ही एक दिन 'अफसराइन' बन गई। गांव के लोग सचमुच उसे स्नेहपूर्ण
परिहास में 'अफ़सराइन' कहने लगे। वह सुनती, सिर नीचा करके मुसकराती और
मन-ही-मन गर्व का अनुभव करती।
रुक्मा को कलकत्ते लाने पर, प्रारम्भ में प्राय: एक वर्ष तक, कमलापति ने
काफ़ी आराम और प्यार से रखा। वह अकसर उसे टैक्सी पर बिठाकर कभी सिनेमा
दिखाने ले जाता, कभी थियेटर। कभी छुट्टी के दिन घुड़दौड़ के मैदान में ले
जाता, कभी बोटैनिकल गार्डन की सैर कराता। तरह-तरह की रंग-बिरंगी साड़ियां
और गहने भी उसने उसके लिए खरीदे। एक बंगाली नौकरानी उसके साथ के लिए रखी।
चूल्हा-चौका करनेवाली नौकरानी अलग से आती थी। रुक्मा पहाड़ से विछोह का
अनुभव सब समय करते रहने पर भी एक प्रकार से खुश थी। पति का प्यार पाकर उसे
सन्तोष था, हालांकि तब भी कमलापति अकसर रात में देर से आता और जब आता, तो
उसके मुंह से विकट दुर्गन्ध आती और उस हालत में उस का व्यवहार जंगलियों और
उजड्ड लोगों का-सा रहता। फिर भी, वह सन्तुष्ट थी, क्योंकि तब वह जानती थी
कि वह उसे प्यार करता है।
पर दूसरे ही वर्ष से स्थिति एकदम बदल गई। लड़ाई खत्म हो गई और सिपाहियों के
लिए अन्धाधुन्ध माल का भेजा जाना एकदम बन्द हो गया। कमलापति और उसके
साथियों की ऊपरी आमदनी प्राय: शून्य के बराबर रह गई। केवल वेतन शेष रह गया
जो डेढ़-सौ से अधिक नहीं था। 'सुकाल' के दिनों में जो हजारों रुपये उसने
कमाए थे, उनमें से एक पाई भी बचा नहीं पाया था। जितने भी रुपए हाथ में आते
गए, उन्हें वह मुक्तहस्त होकर फूंकता चला गया था।
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