लोगों की राय

कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ

27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

Like this Hindi book 0

स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ




रुक्मा

इलाचन्द्र जोशी

रुक्मा सोच रही थी कि ऐसा कैसे हुआ। प्राय: दस वर्ष उसे अपना घर छोड़ कलकत्ता आए हो  गए थे। जब से कलकत्ते आई, तब से बराबर खिदिरपुर के उसी गलीवाले पुराने मकान में कभी ऊपर और कभी नीचे के तल्ले के सील भरे कमरे में उसके दिन बीते और रातें भी : विवाह  होने के बाद केवल एक बार-पहले ही वर्ष-वह पहाड़ पर कुछ दिनों के लिए अपने मायकेवालों  से मिली थी। तब वह सोलह साल की नई ब्याही बहू थी और उसका पति कमलापति उसके  प्रति सदय था। तब उसके बर्ताव में कोमलता थी और आज के-से रंग-ढंग नहीं थे। जब वह  वापस गई थी, तब पति ने उसके लिए दो-चार नई साड़ियां खरीद दी थीं, जो बहुत भड़कीली  थीं और उसके गरीब पहाड़ी गांव के लिए अनोखी और अपूर्व थीं। एक नए बक्स के भीतर वह खूशबूदार तेल की बढ़िया तसवीरवाली रंगीन शीशी, रंगीन ही कंघी, शीशा, पाउडर, किस्म-किस्म की रंग-बिरंगी चूड़ियां, तरह-तरह की चमकीली बिन्दियां, बढ़िया सिंदूर आदि बहुत-सी चीजें  बन्द करके ले गई थी। लम्बी यात्रा के बाद जब वह गांव पहुंची थी, तब उसका  पोशाक-पहनावा, रंग-ढंग, साज-सजावट, गुलाब-से खिले चेहरे की चमक और सुन्दर-प्रसन्न  आंखों की दमक देखकर उसकी सहेलियां चकित रह गई थीं। जैसे वह उनकी बचपन में  पहचानी रुक्मा नहीं, स्वर्ग-लोक से उतरी कोई परी हो। अपने मैले-कुचैले, खेत की मिट्टी से सने कपड़ों से उससे लिपटने का साहस किसी को नहीं होता था। वे केवल अपनी भोली, प्रसन्नता-मिश्रित, विस्मय-भरी आंखों से उनकी ओर टुकुर-टुकुर देखती रह गई थीं। रुक्मा स्वयं ही आगे बढ़कर, एक-एक करके, सभी सहेलियों के गले मिली थी। पर वह देख रही थी और अनुभव कर रही थी कि वे सभी पहले की-सी निश्च्छलता और स्वच्छन्दता से अब उससे नहीं मिल पाती थीं। वह सचमुच उनसे अब बहुत दूर पड़ गई थी। इस अनुभव से उसका भोला हृदय रो पड़ा था। उसने बार-बार कोशिश की थी कि उसकी सखियां उसे पहले की ही रुक्मा समझ कर हिलें-मिलें और पहले की ही तरह बेतकल्लुफी से खेलें-और कूदें', बातें करें, पर उसका कोई फल नहीं हो पाता था। ऐसा नहीं कि वे अब उसे प्यार न करती हों-उसे देखकर सभी की आंखें प्यार और प्रसन्नता से भर-भर आती थीं, पर साथ ही संभ्रमभरी ईर्ष्या का जो एक सुस्पष्ट भाव उनकी आंखों में झलकता था और उनके बर्ताव से प्रकट होता था, वह रुक्मा को अपने लिए बड़ा ही घातक और मारक लगा था। उसे लगा था कि वह अपनी सखियों से और अपने घरवालों से केवल पहाड़ से कलकत्ते जाकर ही दूर नहीं हुई, उनके निकट आने पर भी वह दूरी वैसी-की-वैसी बनी रह गई है, बल्कि और अधिक बढ़ गई है। एक महीने मायके रहकर जब वह उन सब लोगों से विदा होने लगी थी, तब उसके पति, चाचा और विधवा फूफी के अतिरिक्त उसकी सखियां और गांव की कुछ बड़ी-बूढ़ियां भी उसे प्राय: दो मील तक पहुंचाने गई थीं। सबको लग रहा था, जैसे गांव से कोई बड़ी निधि जा रही हो। वह घर में रंगाई गई बड़ी-बड़ी लाल बुंदकियों वाली पिछौरी के नीचे कत्थई रंग का लहंगा पहने थी। नाक के कुछ ही ऊपर से मांग तक उज्जवल लाल रंग का एक लम्बा टीका उसके मस्तक की शोभा बढ़ा रहा था। सभी समवयसी और जवान स्त्रियों को उसके सौभाग्य पर ईर्ष्या हो रही थी और वे सब उसके प्राय: सैंतीस-अड़तीस साल की उम्र वाले पति की ओर ललकती हुई आंखों से देख रही थीं-उसे रुक्मा के इतने बड़े भाग्य का विधायक जान कर दो मील के बाद सभी स्त्रियां वापस जाने लगीं। रुक्मा ने फूफी और बड़ी-बूढ़ियों को प्रणाम करके और सखियों के गले मिल कर गोली आंखों से सबसे विदाई ली। उसके बाद रह गए उसके चाचा, उसका पति, एक कुली और वह स्वयं। मोटर-स्टेशन तक पहुंचने के लिए तीन मील और चलना था। कुछ दूर तक  चढ़ाई पर चलने के बाद उतार आ गया और वह लोग तेज कदम रखते हुए अन्तिम मोटर के छूटने के कुछ ही समय पहले पहुंचे। मोटर पर उन लोगों को चढ़ा कर चाचा भी रुक्मा का  प्रणाम लेकर और स्नेह-रस से भरी और विछोह की व्यथा में डबडबाई आंखों से दोनों को  आशीर्वाद देकर विदा हुए। मोटर संध्या को काठगोदाम पहुंची। तब तक गाड़ी नहीं छूटी थी।  जब रुक्मा पति के साथ गाड़ी पर इत्मीनान से बैठ गई, तब चारों ओर के पहाड़ों को उसने एक बार जी भर कर देखा। एक ठंडी आह उसके अन्तर से निकल आई। गाड़ी छूटी और उसने मन-ही-मन उन हरे-भरे पहाड़ों को प्रणाम किया।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

लोगों की राय

No reviews for this book