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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


पता नहीं कैसे-कैसे लोगों से उसका पाला पड़ता होगा, क्या-क्या उस पर बीतती होगी, दुनिया को यह कैसा समझता होगा! आज इनसान जिस तरह तरक्की करता हुआ हज़ारों साल पीछे पहुंच गया है, जबकि वह पहाड़ की गुफ़ाओं और जंगलों में रहता था और इसी तरह नंगा घूमता था, और शायद इसी तरह कच्चे पपीतों पर बसर करता था। इस तरक्की में इस आदमी का क्या हाथ है? और, मुझे पता नहीं क्यों, उस पर बेहद तरस आया। इस पर कि दुनिया में उसका कोई न था, उसके पास कहीं अपनी एक नन्हीं-सी कोठरी भी न थी और बस, इसी आसमान के छप्पर के नीचे उसकी रातें बीतती थीं, और यह कि इस ठिठुरती हुई सर्दी में उसके तन पर बस एक लुगड़ी थी और वह गाय-बैल की तरह कच्चा पपीता खा रहा था।... मगर इन सब बातों से ज्यादा इस बात पर कि उसने एक शब्द भी नहीं कहा। यह नहीं कि वह गीता का प्रवचन देने लग जाता, या आल्हा सुनाने लग जाता, मगर फिर भी कुछ तो वह कह ही सकता था। वह मेरे सामने गिड़गिड़ा सकता था, रो सकता था मगर उसने तो कुछ भी नहीं किया, वह उठकर बैठ गया और चलने की तैयारी में जगह की सफ़ाई करने लगा। उसने न कोई शिकायत की और न कोई फ़रियाद। कैसा अजीब आदमी है? इसने हमसे अगर खाना खिलाने की तलब की होती, तो क्या हम उसे खाना न खिला सकते थे, या कहा होता, तो तन ढांकने के लिए दो-एक कपड़े न दे सकते थे? मगर अब शायद उसे इनसान से इतनी भी उम्मीद बाकी नहीं रही थी। अब तो शायद वह सिर्फ़ इसलिए जी रहा था कि मौत नहीं आती थी और अगर किसी तरह न आई, तो एक रोज़ खुद जाकर हाथ पकड़ कर उसे खींच लाएगा और फिर उसी धिसे हुए टाट के कफ़न में लपेटकर कोई मेहतर उसे घसीटकर कहीं फेंक आएगा।

कहानी कहने में जितनी देर लगती है, वाकये में उतनी देर नहीं लगती। अब उसने सब बीज इकट्ठे कर लिए थे और उन्हें फेंकने बाहर जा रहा था। इस वक्त मैंने उसे बतलाना ज़रूरी समझा कि इस तरह किसी के घर में घुस आना ठीक नहीं होता। अब फिर कभी मत आना। मगर अपने ही कानों में मुझे अपने शब्द खोखले सुनाई पड़े।

वह लौटा और अपना टाट उठाकर चला गया। मैं हक्का-बक्का उसे देखता रहा। मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था कि मुझे क्या करना चाहिए। तब तक वह काफ़ी दूर चला गया था। मैंने माया से कहा- ''एक कुर्ता-पाजामा तो देते उसे...और हां, एक रुपया भी लेती आना!''

और तब, मैंने भोर के धुंधलके में उस आदमी को आवाज़ दी-''ओ आदमी! ओ आदमी!'' क्योंकि उसका नाम मुझे नहीं मालूम था।

वह लौट पड़ा। माया ने लाकर एक कुर्ता-पाजामा और एक रुपया मुझे दिया और मैंने बाहर  निकलकर दोनों चीज़े उसके हाथ में दे दीं। दोनों कपड़े और रुपया लेकर भी उसने कुछ नहीं  कहा, कुछ भी नहीं! वह जैसे आया था, वैसे ही चला गया। मैं कुछ देर तक उसे देखता रहा  और फिर पता नहीं क्यों, मुझे बहुत जोर से रुलाई छूटी और मुझे अपनी आंखें नम होती  मालूम हुईं और फिर अच्छी तरह आंसू बहने लगे। मुझे खुद अपनी इस हालत पर बड़ी हैरानी थी, क्योंकि मैं किसी माने में बहुत नर्म दिल का आदमी नहीं हूं। मगर फिर भी, हर बार जैसे एक लहर-सी उठती थी, जो आकर मुझसे ठकराती थी और मुझे भिगो कर चली जाती थी।  माया तब तक भीतर दरवाजे पर ही खड़ी थी और मैं नहीं चाहता था कि वह या कोई ही मेरे  इन बचकाने आंसुओं को देखे। मैं बाहर सड़क पर निकल गया और घूमने लगा। मगर मैं घूम नहीं रहा था-रो रहा था' जैसे रह-रह कर कोई मेरे दिल को मसोस रहा हो।

माया जाने को हुई, तो उसने पुकार कर कहा-''भीतर चलो न, वहां क्या कर रहे हो?''

अपनी आवाज़ की भर्राहट को छिपाने की कोशिश करते हुए मैंने कहा-''अब नींद थोड़े ही  आएगी, अच्छी तरह सबेरा हो गया है।''

और, फिर कोई पन्द्रह मिनट तक मैं वहीं घूम-घूम कर रोता रहा : शायद बरसों बाद मैं इस तरह रोया था। मुझे अपने ऊपर कुछ हैरानी भी मालूम हो रही थी, कुछ शर्म भी आ रही थी और यह सोच कर कुछ खुशी भी हो रही थी कि मेरा दिल अभी मरा नहीं है। मैं नहीं जानता, हो सकता है, इसीलिए मैंने अपने आंसुओं को कुछ ढील भी दे रखी हो। मगर इतना मैं जानता हूँ कि वे बेईमान आंसू न थे-शायद उस आदमी के दिल की घुटन थी, जो इस वक्त मेरे आंसुओं की शक्ल में बाहर आ रही थी; क्योंकि मुझे लगता है कि जैसे कभी आग के एक ही गोले से छिटककर यह सारी सृष्टि बनी थी, वैसे ही किसी कुम्हार ने गीली मिट्टी के एक ही गोले से सब इनसानों के दिल भी बनाए थे और उनका साज कुछ इस तरह मिलाकर रख दिया था कि एक का दर्द दूसरे के सीने में जाकर बजने लगता है।

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