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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


हाजी और बेगम दोनों ही बी हमीदन का यह त्याग और साहस देखकर सकते की हालत में रह गए। हाजी जी उसके कदमों में गिर कर कहने लगे-"बेटी, तूने हमारी इज्जत और जान बचा ली। तुझ पर आफरी।''
बेगम रोती-रोती उससे लिपट गई और बलैयां लेने लगीं।
हमीदन ने उनकी किसी बात पर कान नहीं दिया। वह ड्राइवर की ओर मुखातिब हुईं और बोलीं -''लहनासिंह, तुम एक दयानतदार मर्द हो। देखो तुमने मेरा किराया खाया है और तुम देख रहे हो कि मैं एक फर्ज पूरा करने पर आमादा हूं। अब तुम्हारा यह फर्ज है कि सुबह यहां आकर देखो कि मैं जिन्दा हूं या नहीं और यदि जिन्दा हूं तो मूझे सही-सलामत लाहौर पहुंचा देना।''
लहना सिंह ने कहा-चाहे मेरी जान चली जाए-पर मैं तुम्हें कह देता हूं कि मैं सुबह जरूर आऊंगा।''
बी हमीदन धीरे-धीरे खून के प्यासे उन्मत्त आक्रान्ताओं के पास चली गई और मोटर तेजी से लाहौर की ओर रवाना हुई।
हाजी साहब की बीबी और बेटियों ने अब हमीदन को इस श्रद्धा-भरी निगाह से देखा, जैसे वह कोई देवदूत हो।

एक ही सप्ताह में सब रंग बदल गया था। हाजी साहब तनजेव का कुर्ता पहने मसन्द पर पड़े पान कचर रहे थे। सिर पर बिजली का पंखा सर्राटे-बन्द चल रहा था। खम्बरी तम्बाकू पेचवान में सुलग रहा था। जिसकी महक से कमरा बाग-बाग हो रहा था। नवाब मुईनुद्दीन साहब भी श्वसुर की अर्दली में एक आराम-कुर्सी पर पड़े सिगरेट के कश खींच रहे थे। दीन, ईमान और पाकिस्तान के छोटे-बड़े सब मस्लों पर बहस हो रही थी। हाजी साहब के चेहरे और रंग-ढंग से यह पता ही नहीं लगता था कि उन पर कोई भारी विपत्ति टूट चुकी है।

खिदमतगार ने पेचवान पर नई तम्बाखू चढ़ा कर अर्ज की कि एक औरत आप से मिलना चाहती है।
हाजी साहब चमक पड़े। उन्होंने कहा-''औरत? कौन औरत कह दो मुलाकात नहीं होगी।''

परन्तु मुलाकात करने वाली औरत खिदमतगार के पीछे ही पीछे वहां तक चली आई थी। उसने हाजी साहब की बात सुन ली थी। उसने कहा-''अफसोस है हाजी साहब, मुझे आप से मुलाकात करना जरूरी हो गया। उस मुसीबत से बच कर आपको यहां खुशोखुर्रम देख कर निहायत खुशी हुई।''
''मगर बानू, तुम अपना मतलब तो कहो?''
हाजी साहब नहीं चाहते थे कि नवाब के सामने यह बात खुले कि वह एक रजील बाजारू औरत है और उन्हें अपनी लडकियों के साथ उसके पास बैठ कर यात्रा करनी पड़ी है।

बी हमीदन ने कहा-''हुजूर यह मैं जानती हूं कि आप जैसे रईसों के घर बिना बुलाए मेरे जैसी रजील बाजारू-''
''मगर खुदा के लिए अपना मतलब कहो मतलब!''
हमीदन ने भी दों-टूक कहा-''मतलब यह कि मेरी गठरी मुझे इनायत कीजिए।
''गठरी? कैसी गठरी?''
''जो मैंने आपको सौंपी थी!''
''क्या तुम कोई पागल औरत हो बेगम! कब कैसी गठरी! भई, तुम जरूर किसी मुगालते में पड़ गई हो। किसी दूसरे आदमी को गठरी-उठरी दी होगी। मैं तो तुम्हें जानता भी नहीं। मेरा नाम हाजी-''

''आपका नाम मैं जानती हूं।''-हमीदन ने तेज में आकर कहा ''गठरी मैंने खुदा को गवाह करके दी थी। अब आप नहीं देते तो न सही। मगर वह मेरी हराम की कमाई थी। मुझे इस बात की खुशी है किं जब आप उसे हज्म कर लेंगें तो आपके खून में हराम का नमक भर जाए। जाइए, जैसे मेरे मडुए-मरासी मुझसे पाते-खाते हैं आप भी पा गए हैं तो खाइए। बन्दगी अर्ज!''

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