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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


हाजी साहब ने पिस्तौल निकाल कर कहा-''बेहतर है मैं अपने ही हाथों से लडकियों को कत्ल कर दूं और अपनी जान भी दे दूं।''-परन्तु वास्तव में उनमें जान लेने-देने का दम ही न था।

इसी बातचीत में दस मिनट का सारा समय बीत गया। इसकी सूचना देने को आक्रमणकारियों ने हवा में एक फायर किया। गोली दगने की आवाज सुनते ही हाजी साहब के हाथ से पिस्तौल छूट पड़ा। वह जमीन पर लोट गए। और सिसकते हुए कहने लगे हाय-''मैं किस मुंह से कहूं कि बिटिया, अपनी अस्मत खोकर खानदान की जान बचा लो।"

बी हमीदन जब से मोटर में आकर बैठी थीं, पत्थर की तरह चुप बैठी थीं। उसने हाजी साहब की हिकारत भरी बातें अपने विषय में चुपचाप सुन ली थीं। वह जानती थीं कि जब जान के लाले आ पड़े हों तो छोटी-मोटी बातों पर विचार नहीं किया जाता। अब वह इस आकस्मिक विपत्ति में हाजी साहेब को बिलखते हुए चुपचाप देख रही थीं। अपनी बौखलाहट में उसे सब लोग भूल ही गए थे। उसकी ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया था।

उसने कनखियों से देखा-खूंखार, आक्रमणकारियों का दल तलवार चमकाता हुआ मोटर की ओर आ रहा है। वह चुपके से मोटर से उतरी, दस कदम आगे बढ़ कर उसने आक्रान्ताओं से कहा-''आप लोग आगे मत बढ़िए। मैं अभी एक मिनट में आप के पास आती हूं।''

उस चितकबरी चांदनी रात में शराब और खून में उन्मत आक्रमणकारियों ने उस रूपसी बाला के मृदुल कंठ स्वर से आश्वासन
पाकर पाशविक अट्टहास किया। सब लोग जहां के तहां ठिठक गए। हमीदन फिर मोटर के निकट आई और हाजी साहब को सम्बोधन करके बोली-''आपसे मेरी एक आरजू है, मेरी कुछ रकम इस गठरी में है। जेवरात और नकदी सब मिला कर दस हजार से ऊपर का माल है। आप एक शरीफ बुजुर्ग मुसलमान हैं। आपकी और आपके खानदान की इज्जत बचाना मेरा फर्ज है। मैं एक रजील बाजारू औरत जरूर हूं-मगर अपने फर्ज से बेखबर नहीं। यह गठरी खुदा के सामने मैं आपको अमानत सौंपती हूं। अगर कभी जिन्दा लाहौर पहुंच गई तो ले लूंगी। वर्ना गठरी आपकी है। खुदाहाफिज।''

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