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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


''किस सदी की बातें कर रहे हो तुम?''-मनमोहन ने कहा-''आज के जमाने में सफल चोर आदर पाते हैं.........और उनकी आत्मा की आवाज शहर के कोलाहल में सुनाई ही नहीं देती।''

''अच्छा, तो आज की बात सुनो।'' नवीन ने कहा-''और फिर फैसला करो कि अपराधी मैं था या कोई और।''

''सुनाओ।''-राकेश ने कश खींच कर धुआं छोड़ दिया।

नवीन ने चवन्नी वाली बात विस्तार सहित कह सुनाई, फिर कहा-''क्लीनर ने जिस नजर से मेरी तरफ देखा, उसका मतलब साफ था। मैं खोटी चवन्नी को अपनी बता कर दूसरी चवन्नी दे सकता था। मगर मैं जानता था मैं निर्दोष हूं। फिर मैं ऐसा क्यों करता!''

''मगर टैक्सी में बैठे दूसरे लोग भी तुम्हें निर्दोष समझते थे?''-राकेश ने पूछा।
''यह मैं नहीं कह सकता। शायद वे भी क्लीनर की तरह मुझे ही दोषी समझते हों।''

''और तुम्हें इसकी कोई चिन्ता नहीं है। तुम्हारी आत्मा जो साफ है।''
''जी हां, आत्मा साफ है।''-मनमोहन ने छींटा कसा-''तभी जनाब को रह-रह कर खयाल आ रहा है कि दोषी कौन था।''
नवीन ने चश्मा उतार कर उंगलियों से आंखों की कोरों को दबाया; फिर कहा-''सच बताऊं? मैंने यह बहस केवल इसलिए शुरू की, ताकि अपने-आपको विश्वास दिला सकूं कि मैं सही रास्ते पर हूं। पर मालूम होता है, मुझे इसका प्रायश्चित करना पड़ेगा; वरना जब भी मेरी भेंट उस क्लीनर से होगी, मैं उससे नजरें न मिला सकूंगा।''  

''तुम निर्दोष हो, फिर यह झेंप क्यों?''-राकेश ने कुरेदा।  

''इसलिए कि जो दोषी था, उसे झेंप नहीं आई।''-नवीन ने चश्मा लगाते हुए कहा-''खैर, छोड़ो इन बातों को। आओ, ताश की एक बाजी हो जाए।''

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