कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ 27 श्रेष्ठ कहानियाँचन्द्रगुप्त विद्यालंकार
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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ
मदन गोपाल ने चाय का एक घूंट पीकर प्याला मेज पर रख दिया और अपने मोटे पेट पर हाथ फेर कर कहा-''आज एक अजीब बात हुई।''
''क्या?''-उसकी पत्नी राधा ने मुसकरा कर पूछा। आजकल वह एक अद्भूत संसार में रहती थी। एक तो विवाह हुए कुछ अधिक दिन न हुए थे-इस पर एक नन्हे मेहमान के आने की तैयारियां। रह-रह कर राधा चौंक-चौंक उठती। मदन गोपाल को देखकर उसे बरबस न जाने क्या होता, कि बस! अब भी प्रश्न पूछते हुए वह एक अजीब सी इच्छा का अनुभव कर रही थी और बड़ी कठिनाई से उसे दबा रही थी।
मदन गोपाल ने मुसकरा दिया-''क्यों, कहा खो रही है मेरी रानी?''
''हुंह, यहीं तो हूं आपके सामने।...आप क्या बात बता रहे थे भला?''
"...हां। आज साइकिल नहीं थी न, सो टैक्सी में दफ्तर से लौटा हूं। मैं पिछली सीट पर बैठा था। दो और आदमी भी मेरे साथ ही बैठे थे। तीनों ने एक-एक चवन्नी निकाल कर दी। टैक्सी वाले ने लेकर देखा, तो तीन में से एक चवन्नी खोटी। उसने पूछा-'यह खोटी चवन्नी किसकी है? बदल दो।' मगर तीनों में से किसी ने हामी नहीं भरी।"
''अच्छा!'' राधा के गोरे मुख पर चिन्ता के बादल छा गए। फिर एकाएक बोली-''तुम्हारी तो नहीं थी?''
''मेरा खयाल है, मेरी नहीं थी। और, अगर होती भी, तो मैं क्या कर लेता? चवन्नी के सिवा मेरे पास और कुछ था ही नहीं।''
''क्यों, सुबह तो एक रुपया ले गए थे...''
''हां, चार आने जाने में लगे। दफ्तर में एक दोस्त आ गया। उसे चाय पिलानी पड़ी। आठ आने उसमें चले गए।''
''हूं! यह तो अच्छा नहीं हुआ।'' राधा सोच रही थी-अगर खोटी चवन्नी इनकी थी, तब तो बहुत बुरी बात हुई।
''अरे छोड़ो भी!'' मदन गोपाल ने हवा में बात को परे धकेलते हुए कहा-''कुछ मीठी बातें करो।''
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