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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


और कम्बख्त हैं भी तो तीनों नई सवारियां। रोज की सवारियां ऐसा नहीं करतीं-कर भी नहीं सकतीं, क्योंकि रोज का धोखा सम्भव नहीं है।
एकाएक धचके के साथ टैक्सी पटेल नगर के दायरे में आकर रुक गई, मगर क्लीनर मोहन ने मुसाफिरों के लिये रास्ता नहीं छोड़ा। जरा आगे बढ़ कर उसने कुछ रूखेपन से कहा-''यह चवन्नी क्या किसी की भी नहीं है?''
तीनों मुसाफिरों ने मोहन की तरफ देखा।
मोटे सज्जन ने सिर हिला कर कहा-''मेरी तो नहीं है।''
पतला, श्यामवर्ण का मुसाफिर उठ कर दरवाजे की तरफ बढ़ा। उसके कपड़े गन्दे थे, बाल खिचड़ी हो रहे थे और गालों पर जगह-जगह झांइयां पड़ रही थीं। सफेद कमीज की बांहें चढ़ी हुई थीं और मोटे होंठों पर पपड़ी जम रही थी। वह बोला-''रास्ता छोड़ो, चवन्नी हमारी नही है।''

क्लीनर ने एक नजर ड्राइवर त्रिलोक सिंह की तरफ देखा, जैसे पूछ रहा हो-क्या करूं? त्रिलोक सिंह ने कुछ इशारा नहीं किया; सहज भाव से कहा-''जाने दो बाबू साहब को। क्या ये चवन्नी के लिए झूठ बोलेंगे!''
एक-एक करके सभी मुसाफिर (जो क्लीनर के लिए आदमी नहीं, केवल सवारियां थीं, जिन्हें गिन कर वह पैसों का हिसाब करता था)
टैक्सी से उतर गए। क्लीनर मोहन सड़क की मूल में खड़ा पैसे बटोरता रहा।

सब जा चुके तो आखिरी सीट पर बैठे आखिरी सज्जन बाहर आए। पतले, मगर गोरे-इन सज्जन की आंखों पर सुनहरी फ्रेम का चश्मा था और हाथ में कपड़े का झोला। सफेद कमीज और सफेद पतलून होठों पर एक अजीब सी हैरान करने वाली मुसकराहट।

टैक्सी से बाहर आकर ये सज्जन कुछ देर रुके; फिर मोहन की ओर मुड़ कर बोले-''भाई, विश्वास रखो, मेरी चवन्नी खोटी नहीं थी।''

क्लीनर मोहन का गोल लाल चेहरा और भी लाल हो गया। वह कुछ कहने जा रहा था, मगर बहुत कोशिश करके उसने अपने पर काबू पाया। त्रिलोक सिंह ड्राइवर तब तक टैक्सी को दूसरे गियर में कर चुका था। उचक कर मोहन ने दरवाजा खोला और अन्दर जा बैठा। टैक्सी केन्द्रीय सचिवालय की ओर चल दी।

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