कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ 27 श्रेष्ठ कहानियाँचन्द्रगुप्त विद्यालंकार
|
0 |
स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ
"पैसे देना जी।''
टैक्सी अपनी मंजिल पर पहुंच रही थी और क्लीनर मोहन हाथ बढ़ा कर पिछली सीट पर बैठे तीनों सज्जनों से कह रहा था-''पैसे देना जी।
अगले क्षण तीन चवन्नियां मोहन की हथेली पर आईं और उसने हाथ खींच लिया। तभी टैक्सी का पहिया सड़क के किसी गढ़े मे धंस कर उछला और मोहन ने दरवाजे को कस कर पकड़ लिया। फिर उसने चवन्नियां उलट-पलट कर देखीं, तो एक चवन्नी खोटी नजर आई।
बाकी दो चवन्नियां उसने अपनी नीली धारीदार गन्दी कमीज की जेब में डालीं, फिर कहा -''यह चवन्नी किसकी है? बदल देना।''
मगर उसके बढ़े हुए हाथ की तरफ किसी ने अपना हाथ नहीं बढ़ाया। टैक्सी की पिछली सीट पर बैठे तीनों सज्जनों ने एक क्षण एक-दूसरे के मुखों को निहारा। फिर, जैसे कुछ हुआ ही नहीं, तीनों खिड़की के बाहर का दृश्य देखने में तन्मय हो गए।
क्लीनर मोहन ने एक बार फिर अपना वाक्य दोहराया। सरकारी दफ्तर में काम करने वाले अधिकतर बाबू ही इस टैक्सी में बैठते हैं। सुबह-शाम यह टैक्सी, जो असल में स्टेशन वैगन है, पटेल नगर और केन्द्रीय सचिवालय के बीच चक्कर लगाती है। इसमें कानून से केवल सात आदमियों के बैठने की जगह है, मगर बैठते हैं कम-सें-कम ग्यारह आदमी। तभी तो बस के रेट पर यह टैक्सी दफ्तर के कर्मचारियों की सेवा करने में समर्थ होती है।
मगर अब भी मोहन की बात का किसी ने जवाब नहीं दिया। एक क्षण तक मोहन ने घूर कर तीनों 'सवारियों' की तरफ देखा। दो पतले-इकहरे बदन के अधेड़ उम्र के आदमी और उनके बीच में एक मोटे सज्जन, जिनके चेहरे पर पसीने की बूंदें उभर आई थीं। जरूर यह खोटी चवन्नी इन्हीं सज्जन की है। मगर बने हुए ऐसे हैं, जैसे खोटी चवन्नी के कभी दर्शन भी न किए हों। अजीब बात है। कोई भी खोटी चवन्नी को अपना नही बताता।
|
लोगों की राय
No reviews for this book