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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


गाना समाप्त कर वह निराशा में डूबी घर पहुंची और भीतर से कोठरी बन्द करके बहुत देर तक वेदना से छटपटाती फफकफफक कर रोती रही; पर रोने से भी जब हृदय की वेदना शान्त नहीं हुई-अपमान और निराशा की चोट से वह छटपटा उठी-तो उन्मादिनी की भांति उसने अपने ऊपर लालटेन का तेल उलट कर आग लगा ली। न वह चिल्लाई, न चीखी। आस-पास वाले दरवाजा तोड़ कर जब भीतर घुसे तो वह पृथ्वी में मुंह गड़ाए औंधी पडी जल रही थी। कम्बल डाल कर आग बुझाई गई। उसी समय कमल वहां पहुंच गए। ललिता आग लगा कर जल गई, यह शब्द सुन कर क्षण भर को वे स्तब्ध खड़े रह गए। उन्हें लगा जैसे दिल की धड़कन बन्द हुई जाती है। फिर, सहसा बड़े वेग से भाग कर उन्होंने ललिता के जले शरीर को उठा लिया और मोटर में उसे लेकर अस्पताल चले गए।

डाक्टरों ने कमल के इशारे पर जो कुछ हो सकता था किया, किन्तु उसका शरीर बुरी तरह जल गया था। उसने दोनों हाथों से अपना मुंह पृथ्वी में छिपा रखा था, इसलिए चेहरे का सौंदर्य नष्ट नहीं हुआ था। किसी नर्स को ललिता के समीप नियुक्त न करके कमल स्वयं ही पलंग के समीप बैठा, अपलक दृष्टि से उसका मुख निहारने लगे। रात्रि के सन्नाटे में दो बजे के लगभग ललिता ने आखें खोलीं। दोनों की दृष्टि एक हो गई। किन्तु कमल ने आंसू टपका कर आंखें नीची कर ली। ललिता के होंठ हिले। कमल ने चम्मच से मुख में पानी डाला। पीकर क्षीण स्वर में ललिता ने कहा-''मुझे क्या मालूम था तुम्हारी दृष्टि का मूल्य! तुम कितने निष्ठुर हो!'' कमल फूट कर रो पड़े। ललिता ने हाथ उठाने की चेष्टा की, लेकिन कराह उठी। अपने शरीर की पट्टियों पर सरसरी दृष्टि डाल कर बिना विचलित हुए उसने फिर कहा-''धीरज धरो, मेरी ओर देखो।''
कमल ने विह्वल होकर उसका सिर धीरे से अपनी गोद में रख लिया।'

ललिता कुछ देर तक आंखें गड़ाए कमल का मुंह देखती रही। कमल ने कठिनाई से विकल होकर कहा-''मुझे क्षमा कर दो, ललिता!'' रुलाई के आवेग से उनका कण्ठ रुक गया। अधिक कुछ नहीं कह सके। रोते ही रहे। ललिता की भी आंखें भर आई। हृदयावेग के कारण रुकते हुए कण्ठ से उसने कहा-''मेरा अन्त बड़ा सुन्दर है। भगवान ने बड़ी कृपा की, जो तुम्हें देखने को आंखे बचा दीं।'' किन्तु कुछ ही क्षण बाद उसकी आंखें सदैव के लिए बन्द हो गई।

कमल निश्चेष्ट से उसके सिर को गोद में लिए बैठे रहे, मानो जागने की प्रतीक्षा कर रहे हों। अचानक जोर से दरवाजा खुला। अस्त-व्यस्त से पण्डा जी आए और ललिता का मुख देख कर चीख उठे-''बेटी, मुझ देर हो गई, नहीं तो कल मैं तुझे आत्म हत्या न करने देता।'' फिर अपने को संयत करके बोले-''कमल बाबू, घर जाओ। मेरी बेटी के शव पर उंगली न उठवाना।'' वे कमल के घर ललिता की तलाश में गए थे और दुर्घटना का समाचार सुन कर सब-कुछ समझ गए थे। व्यथा और पश्चात्ताप से कमल का हृदय फटा जा रहा था।

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