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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


कमल के रसिक मित्र उनके भांति-भांति के रसमय वाक्य कह-कह कर विनोद कर रहे थे। ललिता एकटक कमल को ही देखे जा रही है, यह मित्रों की दृष्टि ने भली प्रकार लक्ष्य कर लिया था। और कमल की ओर से ऐसी उपेक्षा, चुप्पी, मित्रों के मन में और भी विनोद उत्पन्न कर रही थी। वे समझ रहे थे-कमल लजा रहा है। अत: वे ललिता के संगीत की प्रशंसा करते हुए कह रहे थे-''कमाल का गला पाया है। आश्चर्य है कि घरों की गानेवालियां भी इतना अच्छा गा सकती हैं। आवाज कैसी मीठी और सुरीली है। स्वर में कितना लोच है। खूबसूरत भी गजब की है। रंग-रूप से लगता है, जैसे किसी सभ्य घराने की लड़की हो-नायन, बारिन तो लगती नहीं है, दोस्त, यह तुम्हें ही क्यों घूरे जा रही है। हम लोगों की ओर एक बार भी नहीं देखती। पलकें भी तो नहीं झपक रही हैं। आखिर मामला क्या है? तुम इतने शरमा क्यों रहे हो? मालूम होता है, इससे परिचय है।'' तभी एक ने कहा-''अच्छा, मजाक छोड़ो। सच बताओ, यह कौन है, तुम कुछ जानते हो?'' मन की चंचलता छिपाते हुए कमल ने गर्दन हिला कर 'नहीं' का संकेत किया।

समीप बैठे घर के एक पुराने नौकर ने मित्रों की शंका का समाधान किया-''बाबूजी! यह नायन नहीं, ब्राह्मणी है। यहां आए अभी पांच-छ: महीने हुए होंगे। हमारे सेठ जी का एक क्वार्टर किराए पर लेकर रहती है। इतने ही दिनों में इसके गाने की धूम हो गई है। हमारी मालकिन जी बड़े चाव से इसके भजन सुनती हैं।''

कमलकिशोर फिर भी मौन ही बैठे रहे, जैसे इस वार्ता में उन्हें कोई रस ही न हो। वे अपने काम में दत्तचित्त रहे। फिर तश्तरियां लगवा कर कहने लगे-''अब चलो, हम लोग तैयार होकर बाहर की व्यवस्था देखें।'' और मित्रों को साथ लेकर वे ऊपर छत पर चले गए।

इधर ललिता ने भी गाना समाप्त कर दिया और थकावट से मुख का पसीना पोंछते हुए, अनमनी-सी होकर, सेठानीजी से जाने की आज्ञा मांगी।

सेठानी जी ने उसकी सराहना करते हुए कहा-''आज तो तूने कमाल कर दिया, ललिता! मेरा मन बड़ा प्रसन्न हुआ। तुझ पर तो सरस्वती की कृपा है। थक गई होगी। कुछ देर आराम करके खाना लेने आना। तुझे बढ़िया-सी साड़ी दूंगी। न्योछावर के पैसे आदि तो तू लेती नहीं है।''

जबरन मुसकराने की चेष्टा करते हुए ललिता बोली-'माता जी, बालक होने की मुझे भी खुशी है, पैसे किस बात के लू।'' वाक्य पूरा करते-करते उसका कण्ठ रुकने सा लगा। आंखें छलछला आईं। सेठानी जी को प्रणाम कर वह शीघ्रता से आंगन में आ गई और एक लालसाभरी दृष्टि छत की ओर डाल कर, हृदय में ही संभाल, अपने घर चली गई।

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