कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ 27 श्रेष्ठ कहानियाँचन्द्रगुप्त विद्यालंकार
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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ
नगर के विख्यात वैभवशाली सेठ हीरालाल के नवजात पौत्र नामकरण संस्कार था। प्रात: बड़ी धूमधाम से हवन, ब्रह्मभोज आदि अनुष्ठान सम्पन्न हुए थे। रात में दावत का आयोजन था, जिसमें मिनिस्टर से लगा कर सभी उच्च श्रेणी के पदाधिकारी और प्रतिष्ठित नागरिक निमन्त्रित थे। इसलिए सेठ जी ने सहभोज की व्यवस्था का भार अपने पुत्र कमल-किशोर को सौंपा था।
संध्या के समय विशाल प्रांगण में अपने मित्रों के साथ बैठे कमल-किशोर मिठाई-मुरब्बों की तश्तरियां लगवा रहे थे। नौकर-चाकर, इष्ट-मित्र, सभी आनन्दविह्वल होकर काम में संलग्न थे। सारे घर में आनन्द ही आनन्द छाया हुआ था। बाहर द्वार पर नौबत बज रही थी। दावत के समय के लिए बैंड तैयार था। घर में सौरी-गृह के सामने गानेवालियां ढोलक-मंजीरा बजा कर सोहर गा रही थीं।
गानेवालियों के मध्य बैठी ललिता अपनी मधुर स्वर-लहरी से प्रत्येक का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर रही थी। सोहर के गीत गा चुकने के बाद अब वह कृष्ण के विरह में गोपियों की वेदना के वर्णन भावमय गीतों से समां बांध रही थी और निर्निमेष दृष्टि से कमलकिशोर की ओर ताकती हुई प्राणपण से अपने संगीत को अत्यधिक चमत्कारी बनाने के निमित्त व्यग्र जान पड़ती थी, मानो किसी सिद्धि की प्राप्ति के लिए वह यथाशक्ति अपनी कला को सफलता की चरम सीमा पर पहुंचा देना चाहती हो। हाथों की उंगलियां चपलता से ढोलक पर नृत्य कर रही थीं। दृष्टि सब कुछ भूल कर एक दिशा की ओर लगी हुई थी-हदय की वेदना कण्ठ स्वर से फूटी पड़ रही थी। मुख पर पसीने की बूंदों के साथ ही अकुलाहट के चिन्ह भी अंकित थे। लगातार पूर्ण शक्ति लगा कर गाते रहने के कारण मुंह सुर्ख हो गया था। वह लालिमा उसके सौंदर्य में चार चांद लगा रही थी। ऐसा जान पड़ता था, मानो वह संगीत कला की साधिका आज अपनी साधना का अन्त करके, सफलता का निर्णय करने का संकल्प कर साधनारत थी।
कमल ने एक बार भी उसकी ओर दृष्टिपात नहीं किया, बल्कि नेत्रों को संयत कर वे उस ओर देखने से अपने को जबरन रोक रहे थे। किन्तु बार-बार ललिता के स्वर से उनका हृदय स्पन्दन कर उठता था-शरीर में कम्पन आ जाता था।
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