कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ 27 श्रेष्ठ कहानियाँचन्द्रगुप्त विद्यालंकार
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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ
कुछ दिनों बाद छुट्टियों में भुवन गांव लौटा। वह भरा-पूरा जवान हो गया था।
उसकी बातें सुनकर मां को लगता कि वह कल का शर्मीला भुवन नहीं, कोई और है।
भुवन के कारण ही जैसे गांव-पड़ोस में बड़ी बहू का सम्मान बढ़ गया था। लोग
उसके सम्मुख पहले की अपेक्षा कहीं अधिक विनम्रता और आदर दिखलाते। हरीश की
अंगुली थामे भुवन गांव भर का चक्कर लगा आता। स्नेह से मां उसे देखा करती,
चाची की आंखों में आशीष झलकता।
छुट्टियां समाप्त होने से पूर्व ही भुवन ने जाने की तैयारी कर ली। शमदत्त
और कैलाश, दोनों ही ने अपनी-अपनी ओर से उसे मां को लेकर अपने पास आने का
निमन्त्रण दे दिया था।
घर का कारबार देवरानी के हाथों में सौंपकर बड़ी बहू भुवन के साथ चल दी।
रामदत्त स्टेशन पर उन्हें लिवाने आया। देवर के घर पहुंच कर बड़ी बहू को
लगा, जैसे रामदत्त की पत्नी को भुवन से कहीं ज्यादा स्वयं उसकी प्रतीक्षा
ही हो। अपनी इस देवरानी का ऐसा व्यवहार उसके लिए आश्चर्य की वस्तु बन गया।
वह बातें करती, तो जैसे मुंह से फूल झड़ते। चार-पांच दिन वहां रुक कर भुवन
कैलाश के पास जाने की तैयारियां करने लगा, तो रामदत्त की बहू ने इस बात का
बड़ा आग्रह किया कि भुवन नौकरी पर जाने से पूर्व मां को उनके पास छोड़ जाए
कैलाश और छोटी बहू का व्यवहार भी पहले की अपेक्षा कहीं अधिक अपनत्वपूर्ण
था। जेठानी के सेवा-सत्कार में छोटी बहू दिल खोलकर खर्च कर रही थी। पहले
दिन ही बाजार से दो-चार अच्छी किस्म की साड़ियां लाकर छोटी ने कहा-''जीजी,
अब तो आप बड़े अफसर की मां हो गई हैं! ऐसी मोटी धोतियां ही पहने रहेंगी, तो
लोग हँसी नहीं करेंगे।''
बड़ी बहू ने स्नेह से छोटी की ओर देखा और कहा-''तुम्हारा ही बेटा है, बहू!
तुम लोग अपना शौक पूरा करो। अब क्या मेरे पहनने-ओढ़ने के दिन हैं!'' कहते
हुए उसकी आंखें भर आई थीं।
भुवन की छुट्टियां समाप्त होने को आ गई थीं। छोटी बहू का आग्रह भी जेठानी
को अपने पास रोक लेने का था, परन्तु शीघ्र ही दुबारा आने का वचन देकर वह
भुवन के साथ लौट गईं।
लौटती बार भुवन मां को रामदत्त के घर छोड़ गया था। हरीश और उसकी मां के
अलावा बड़ी बहू को गांव की खेती-बारी की भी चिन्ता लगी रहती। बार-बार
कहती-''कौन जाने, अकेले उससे काम निबटा भी होगा कि नहीं। सारी फसल बर्बाद
हो जाएगी।''
परन्तु आजकल करते-करते उसे वहां रहते दो महीने बीत गए। रामदत्त की बहू
प्रत्येक छोटी से छोटी बात के लिए उसकी राय लेती।
बड़ी बहू ने रामदत्त से पत्र लिखवा कर कैलाश और छोटी बहू को तथा गांव से
हरीश व उसकी मां को भी कुछ दिन के लिए बुलवा लिया था। घर में दिन-रात
चहल-पहल रहती। सभी बातों के उत्तर जैसे बड़ी बहू के पास हों। यह कैसे होगा?
वह कैसे होगा? क्या खाना बनेगा? सभी बातें बड़ी बहू से पूछी जातीं। उसे
लगता, जैसे वर्षों पहले प्रथम बार ससुराल में आने पर उसने सास को जिस
गौरवपूर्ण पद पर बैठी देखा था, आज वही पद उसे अनायास ही मिल गया है। एक
भरे-पूरे परिवार का स्वप्न उसकी आंखों में तैर जाता।
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