कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ 27 श्रेष्ठ कहानियाँचन्द्रगुप्त विद्यालंकार
|
|
स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ
परन्तु मेले के बीच में खड़े बालक की भांति बड़ी बहू चकित दृष्टि से अपने
चारों ओर जो स्वप्न देख रही थी, वह स्वप्न ही बन कर रह गया!
दोपहर का भोजन समाप्त कर घर-भर के लोग सुस्ता रहे थे, तभी डाकिए ने आवाज
दी। बड़ी बहू ने उत्सुकता से पूछा-''लाला, देखो तो भुवन की तो कोई चिट्ठी
नहीं आई। कितने दिनों से अपनी कुशल उसने नहीं भेजी।''
''ट्रेनिंग के काम में फंसा होगा, जीजी! वरना वह ऐसा नहीं। हमें तो हर
हफ्ते एक चिट्ठी भेज देता है।''-छोटी बहू ने उसे खुश करने की नीयत से कहा।
भुवन की ही चिट्ठी थी। पर रामदत्त ऊंचे स्वर में पर कर नहीं सुना पाया।
''कुछ समझ में नहीं आता।'' केवल इतना ही उसके कण्ठ से निकला और वह फिर
चिन्ता में डूब गया।
सभी का हृदय किसी भयंकर घटना की आशंका से धड़कने लगा। पर कब तक मौन रहा जा
सकता था। भुवन ने लिखा था-''छुट्टियों से लौटने के कुछ दिन बाद ही मैं एक
कार-एक्सीडेंट में घायल हो गया था। हाथ में चोट अधिक आ गई थी। कल प्लास्टर
खुला है। अब ठीक हूं। लेकिन हाथ की कमजोरी के कारण शायद सेना के योग्य
नहीं रहूंगा।''
बड़ी बहू ने आंखें पोंछ, आंचल का छोर माथे से लगाकर, धीमे स्वर में
कहा-''मेरे भुवन की जान बच गई-यही बहुत है, भगवान।'' और दोनों हाथ जोड़ कर
जैसे उसने मन ही मन भगवान को नमस्कार किया।
पर बड़ी बहू का सा ही मन लेकर तो सभी पैदा नहीं हुए हैं। तभी तो न जाने
कैसे स्वर में रामदत्त की बहू ने पूछा-''अस्पताल से छूट कर कहां जाने की
बात उसने लिखी है?''
इसके बाद फिर घरेलु काम-काज की बातों में बड़ी बहू से किसी ने कोई राय नहीं
ली। कैलाश और छोटी बहू का आग्रह हमेशा उन्हें अपने साथ ले जाने का रहता
था, परन्तु इस बार जब बड़ी बहू ने वापस गांव जाने की बात कही, तो किसी ने
बात पर आपति नहीं की।
अपना सामान संभालते हुए, बड़ी बहू को हरीश की मां के साथ चलने की तैयारी
करने के लिए नहीं कहना पड़ा। वह स्वयं जैसे जानती हो कि उन दोनों का पथ एक
ही है।