कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ 27 श्रेष्ठ कहानियाँचन्द्रगुप्त विद्यालंकार
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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ
बड़ी बहू धीरज बंधाने के स्वर में कहती-''बहन, दिल छोटा नहीं करते। दुख-सुख
तो रात-दिन की तरह ही रहते हैं। भगवान करे, भुवन चार पैसे कमाने-लायक हो
जाए। मैं तुझे उसके साथ भेज दूंगी। हरीश भी पढ़-लिखकर आदमी बन जाएगा।''
भुवन बड़ी बहू का इकलौता बेटा था स्वर्गीय पति की एकमात्र विरासत! वह अपने
बड़े चाचा के साथ रहकर शहर में पढ़ रहा था।
दोनों बहुएं मन का बोझ हलका कर पानी की गागर लिए घर लौट आतीं।
नौकरी से छुट्टियों में कुछ दिन के लिए रामदत्त घर आया हुआ था। एक दिन
अचानक किसी बात को लेकर घर में कलह हो गई। सदा के शिष्ट-सभ्य रामदत्त ने
उस दिन तमक कर पिता से कह दिया-''बाबू जी, आप कहें, तो मैं कैलाश को भी
चिट्ठी भेजकर बुला लूं और इस बात का फैसला हो जाए कि अगर इन लोगों से
मिल-जुल कर नहीं रहा जाता, तो अलग-अलग क्यों नहीं हो जाते। भुवन को मैं
पढ़ा रहा हूं। अपनी ओर से जितना हो सकेगा, मैं भाभी की मदद कर दूंगा और
हरीश की मां की जिम्मेवारी कैलाश ले ले।''
हरिदत्त को आज तक जिस बात की आशंका थी, अंत में वही सामने आ खड़ी हुई।
परन्तु रामदत्त के मुंह से यह सुनने को मिलेगा, ऐसी आशा उन्हें नहीं थी।
असंयत स्वर में वे बोले-''रामी! जिस दिन मैं मर जाऊंगा, उस दिन तुम पहले
बंटवारा करना, फिर मेरी अर्थी उठाना। पर जब तक मैं जिन्दा हूं, कभी ऐसी
बात इस घर में नहीं उठेगी। हमारे खानदान में आज तक ऐसा नहीं हुआ है!...''
क्रोध और दुख के कारण उनका शरीर कांपने लगा और आंखें भर आईं।
वास्तव में, जब तक हरिदत्त जी जीवित रहे, फिर ऐसी बात घर में नहीं उठी। पर
एक दिन अचानक जब उनकी मृत्यु हो गई, तो परिवार धीरे-धीरे छंटने लगा। पिता
जी की मृत्यु के पश्चात काम-काज पर लौटते समय रामदत्त अपने बाल-बच्चों को
अपने साथ ले आया-कैलाश ने भी कुछ दिनों के बाद छोटी को बुलवा लिया।
एकमात्र नन्हें हरीश को लेकर दोनों विधवाएं उस कोलाहलहीन घर में शेष रह
गईं। प्रतिमास कैलाश अथवा रामदत्त की ओर से जो थोड़ी बहुत सहायता मिल जाती,
उसके अलावा घर की खेती-बारी ही उनके जीवन-यापन का साधन थी। कभी-कभी भुवन
का पत्र आ जाता। हर प्रकार से मां को धीरज बंधाने के बाद वह लिखता कि उसे
जल्दी ही कहीं नौकरी मिल जाएगी। कई महीनों तक यह क्रम चलता रहा।
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