कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ 27 श्रेष्ठ कहानियाँचन्द्रगुप्त विद्यालंकार
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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ
घर में चारों ओर जैसे एक गुप्त मन्त्रणा चलती रहती। हर एक के मन में जैसे कोई रहस्य पल रहा था। कहने भर को ही संयुक्त परिवार था। घर के ही नहीं, बाहर के लोग भी जानते थे कि इस संयुक्त परिवार के आधार कितने खोखले हो चुके हैं। हमेशा यही आशंका लगी रहती कि न जाने कब विस्फोट हो जाए! कब कौन सी बात बारूद के ढेर में चिनगारी का काम कर दे!
घर के आंगन में, दाड़िम की छाया में, बैठे-बैठे दिन भर हरिदत्त जी बड़बड़ाते रहते। बुढ़ापे की धुंधली दृष्टि से भी उन्हें परिवार के प्रत्येक सदस्य के मुख पर छाई हुई विषाद की छाया दिखाई दे जाती।
ऐसे कब तक चलेगा? इसका समाधान तो करना ही होगा। समाधान का अर्थ है, विभाजन! विभाजन की कल्पना करते-करते हरिदत्त जी का शरीर सिहर उठता। आज तक नवागुन्तकों के सम्मुख अपने संयुक्त परिवार की घोषणा करते हुए उन्हें कितना गर्व अनुभव होता रहा था? पर अब अधिक दिनों तक ऐसे नहीं चलेगा। एक दिन बड़ी बहू ने आकर श्वसुर के पैर पकड़ लिए थे। एक शब्द भी वह नहीं बोली थी, केवल आंसू! आसू! जैसे आज अपने आंसुओं से वह पूरी धरती को जलमग्न कर देगी। अभागिनी विधवा के आंसुओं से बड़े घर की ईंट-ईंट भीग गई थी। आंसू थम चुकने पर, रुंधे कण्ठ से बार-बार वह दुहराती थी-''मेरा क्या कसूर है, आप ही बताइए!'' बाबा की उम्र के वृद्ध श्वसुर के आगे, ऐसे क्षणों में भी, उसका घुंघट नहीं उठा था।
हरिदत्त जी ने कोई उत्तर नहीं दिया था। उत्तर देने के लिए बचा ही क्या था? 'बड़ी' का कोई दोष भी तो नहीं था। दोष तो उन्हीं का था कि इतनी दीर्घायु का वरदान पाकर उन्होंने जन्म लिया। चार लड़कों में से एक के बाद एक, दो जवान लड़कों की मृत्यु का दुःख ही जैसे पर्याप्त न हो-हर दिन, हर घड़ी, घर में कलह मची रहती। जो बीत गया, उसे भुला भी दिया जा सकता था। पर उस व्यतीत की स्मृति में दोनों विधवाओं के सूने हाथ जब तब उनकी पूजा-सामग्री जुटा जाते, तो वह घाव फिर हरा हो जाता। दूसरी बहू ने कभी रो-धोकर कोई शिकायत की हो, हरिदत्त जी को याद नहीं पड़ता। उसका वैधव्य जैसे उसे गूंगी बना गया था। अपने हरीश का हाथ थाम कर, दरवाजे की आड़ में खड़ी हो, वह कह देती-''जा, बाबा के पास जाकर बैठ!''
हरिदत्त जी एक बार आंखें उठा कर देख लेते, परन्तु मैली धोती में लिपटी बहू की आकृति न जाने कब द्वार की ओट से ओझल हो गई होती। तब नन्हें हरीश को बुला कर वे पास में बैठा लेते। हरीश की ओर देखकर उन्हें लगता, जैसे उसका पिता गोपाल एक बार फिर अपने शैशव में लौट आया हो। पर वह आकृति भी धीरे-धीरे अस्पष्ट हो जाती। सावन-भादों के बादल उन दोनों के बीच पहरा देने लगते।
रामदत्त की पत्नी का तीखा असन्तुष्ट स्वर कभी-कभी कानों में आ टकराता। प्रतिदिन दूध को लेकर, बच्चों की बातों को लेकर, घरेलू काम-काज को लेकर एक न एक झगड़ा उठ खड़ा होता। सबसे छोटी, कैलाश की बहू का ऐसा तीखा, असन्तुष्ट स्वर तो उन्हें नहीं सुनाई देता था, पर वह इतनी सीधी-सादी नहीं है, यह भी हरिदत्त जी जानते थे। दोनों विधवाओं के सम्मुख दोनों सुहागिनों को अपने आप पर समान गर्व था। दोनों बहुएं इस बात का प्रदर्शन करना नहीं भूलती थीं कि उनके कमाऊ पतियों के कारण ही घर-संसार चल रहा है। दोनों सुहागिनों में परस्पर विशेष प्रीति थी। रामदत्त की बहू कहती-''छोटी, मुन्नी को दूध पिला दे तो।''
छोटी दांतों के बीच निचला ओंठ दबा कर उत्तर देती-''दीदी, दूध तो बहुत कम दिखाई दे रहा है। कोई दो पैरों वाली बिल्ली तो नहीं पी गई?'' और, दोनों सुहागिनों के मुख पर रहस्यभरी मुसकान फल जाती!
बड़ी बहू और हरीश की मां, दोनों विधवाओं के कलेजे में तीर की तरह यह बात चुभ जाती। दिन भर में कई बार ऐसे ही विष भरे शब्द घर के वातावरण में गूंज उठते। इन विषाक्त शब्दों से कभी भी मुक्ति नहीं थी। जब सब कुछ असह्य हो उठता, तो पानी की गागर उठा कर बड़ी बहू डिग्गी की ओर चल देती। हरीश की मां का बड़ा मन होता कि कहीं एकांत में वह उससे बातें करे और मौका मिलने पर अन्य दोनों बहुओं की दृष्टि बचाकर वह भी उसके पीछे-पीछे चली जाती।
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