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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


तथागत ने कहा-''अंगुलिमाल से तुम लोग इतना डरते हो? क्या वह मनुष्य के मनोविकारों से भी अधिक भयंकर है?''
लोग हतबुद्धि उन्हें देखते रह गए। निर्भयचित्त तथागत आगे बढ़ गए।
अंगुलिमाल ने उन्हें जब अकेले ही आते हुए देखा, तब वह आश्चर्य में पड़ गया-''कौन है, जो मेरे सामने आने का साहस कर रहा है? अरे, यह तो कोई श्रमण है! क्या इसे मारूं?''

तथागत के दीप्तिमान व्यक्तित्व से अभिभूत होकर क्षण भर वह असमंजस में पड़ गया। फिर उसे अपने हिंसात्सक संकल्प का ध्यान आ गया। उसने कड़क कर कहा-''ठहरो!''
तथागत रुके नहीं, चलते ही रहे। अंगुलिमाल को ऐसा जान पड़ा, यह श्रमण उसकी दुर्द्धर्ष शक्ति का तिरस्कार कर रहा है। क्षुब्ध होकर तथागत को पकड़ने के लिए उसने दौड़ने का प्रयत्न किया, किन्तु अपनी मानसिक उलझन (दुविधा) में ऐसा उलझ गया कि जहां का तहां निश्चल रह गया। वह सोचने लगा-''दौड़ते हुए हाथी को, घोड़े को, रथ को, मृग को पकड़ लेने वाला मैं इस मन्दगति श्रमण से क्यों पिछड़ गया? मुझ पर यह कैसा सम्मोहन छा गया?''

उसकी देवासुर प्रवृत्तियों में आन्तरिक संघर्ष होने लगा। अपने दुर्दम पशु शरीर को आस्फालित कर उसका असुरत्व प्राणपण से एक बार फिर हुंकार उठा-''खड़ा रह, श्रमण!'

तथागत ने कहा-''चलने में मुझे कोई कष्ट नहीं! निरुद्विग्न हूं, अतएव मैं सुस्थित हूं-तू भी सुस्थित हो, अंगुलिमाल!''
अंगुलिमाल ने विस्मित होकर पूछा-''श्रमण, यह कैसी पहेली है? तुम चलते जा रहे हो, फिर भी अपने को सुस्थित कहते हो-मैं खड़ा हूं, फिर भी मुझे अस्थित कहते हो!''

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