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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


एक दिन भाणवक आचार्य पत्नी के चरणों में उपस्थित होकर सदा की भांति सहज संलाप कर रहा था। शिशु की तुतलीबातों से दुग्धवत्सला मां की भांति विह्वल आचार्य पत्नी भाणवक की सरलता से आत्मविभोर हो रही थीं। आचार्य ने परोक्ष दृष्टि से देख लिया। वे संभ्रम में पड़ गए। सोचने लगे-''इस दुष्ट को कैसे दण्ड दूं? यदि मारता हूं, तो मुझे दुर्दण्ड समझ कर अन्य छात्र यहां पढ़ने नहीं आएंगे-गुरुकुल सूना हो जाएगा।''

सोचते-सोचते उन्हें यह सूझा कि इससे ऐसी गुरु दक्षिणा मांगनी चाहिए, जिससे कि यह  हिंसक होकर हिंसा से ही समाप्त हो जाए। उन्होंने भाणवक से कहा-''बटुक, तुम्हरी शिक्षा पूरी हो चुकी है। अब मुझे अपनी गुरु दक्षिणा दो।''
भाणवक ने विनम्र होकर कहा-''आचार्यश्री के चरणों में क्या दक्षिणा अर्पित करूं?''

आचार्य ने आज्ञा दी-''सहस्र नर-नारियों को मार कर अपने साहस का परिचय दो-तुम्हारा साहस ही मेरी दक्षिणा है।''
सरलहृदय भाणवक सिहर उठा। उस नम्र स्नातक ने सात्विक दृढ़ता से कहा-''आचार्य! मैं अहिंसक कुल में उत्पन्न हुआ हूं-यह जघन्य पाप नहीं कर सकता।''
आचार्य ने क्रुद्ध होकर कहा-''मेरी मनोवांछित दक्षिणा न देने से तुम्हारी विद्या निष्फल हो जाएगी।''

भाणवक ने आचार्य की रुष्ट आंखों की ओर देखा। उनकी शिक्षा की तरह ही, उन आंखों का रक्तारक्त रोष भी उसके कोरे चित्त में अनुरंजित हो उठा। सात्विक स्वभाव में तामसिक प्रवृत्ति का प्रादुर्भाव हुआ। अहिंसक भाणवक हिंसा के पथ पर चल पड़ा। अकेले सहस्र नर-नारियों का सामना नहीं कर सकता था; अतएव पांच हथियार लेकर जंगल में छिप गया।

वह मनुष्य को केवल मारता था, धन और वस्त्र नहीं छीनता था। संख्या याद रखने के लिए गिनता जाता था। जब गिनती याद नहीं रख-सका, तब मृतकों की एक-एक अंगुली काट कर रखने लगा। फिर, अंगुलियां रखे स्थान पर खो जाती थीं, तो वह उनकी माला बना कर पहनने लगा। उसके भय से जब लोगों ने काम-काज के लिए जंगल में जाना बन्द कर दिया, तब वह रात के समय गांव में आकर पैर के आघात से दरवाजा खोल सोते हुओं को मार कर गिनती  गिनता चला जाता। गांव निगम में और निगम नगर में भागकर राजा को गुहराने लगा।
उस समय तथागत बुद्ध अनाथ पिण्डक के जेतवन में विहार करते थे। पूर्वाह्न में जब वे  भिक्षाटन कर रहे थे, तब उन्होंने अंगुलिमाल से पीड़ित प्रजा का आर्तनाद सुना। अपराह्न में वे उस दिशा की ओर चले, जिधर अंगुलिमाल रहता था। उन्हें उधर जाते देखकर गोपालकों, पशुपालकों, कृषकों और पाथको ने कहा-''महाश्रमण, उस ओर मत जाइए। उधर पचासों आदमी एक साथ जाकर भी अंगुलिमाल के चंगुल से नहीं बचते।''

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