कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ 27 श्रेष्ठ कहानियाँचन्द्रगुप्त विद्यालंकार
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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ
बर्बर पशुओं से आक्रान्त, श्रावस्ती के वन-प्रान्तर में एक नरपशु भी रहता था। उस विकराल व्याघ्र का नाम अंगुलिमाल था। वह मनुष्यों को मारकर अंगुलियों की माला पहनता था। उसके आतंक से पीड़ित होकर त्रस्त प्रजा ने राजा प्रसेनजित से निवेदन किया-''देव! उस दुर्दान्त दस्यु से हम लोगों की रक्षा कीजिए।''
राजा प्रसेनजित ने उसके दमन के लिए बहुत उपाय किए, किन्तु सब निष्फल गए। सैनिक शक्ति के रहते हुए भी प्रसेनजित दस्युजित नहीं हो सका।
अंगुलिमाल जन्म से ही दुर्दान्त दस्यु नहीं था। कभी वह नरपशु भी मनुज शिशु था। कोशलराज के पुरोहित गार्ग्य की भार्या मैत्रायणी की कोख से वह उत्पन्न हुआ था और किशोरावस्था में तक्षशिला के गुरुकुल का सुशील छात्र था। वह आचारवान, आज्ञाकारी और प्रियभाषी था। उसके शील और प्रतिभा से मन्दबुद्धि सहपाठियों को द्वेष होने लगा। वे आपस में परामर्श करने लगे कि कैसे इसे नीचा दिखाएं। वे उसका छिद्रान्वेषण करने लगे, किन्तु उस निष्ठावान और प्रज्ञावान भाणवक में उन्हें कोई दोष नहीं दिखाई दिया। तब उन्होंने निश्चय किया कि आचार्य पत्नी को निमित्त बनाकर इसे लांछित किया जाए।
उस सुशील भाणवक पर आचार्य पत्नी का अत्यन्त स्नेह था-अत्यन्त वात्सल्य था। माता की तरह ही वे उसके योग-क्षेम का ध्यान रखतीं, घर आ जाने पर उसका सत्कार करतीं और आशीर्वाद के रूप में अन्नपूर्णा का प्रसाद देतीं।
विद्वेषी सहपाठियों ने गुरुकुल में यह प्रवाद फैला दिया कि आचार्य पत्नी से ढोंगी भाणवक का अनुचित सम्बन्ध है।
बारी-बारी से प्रवाद को पुष्ट करने के लिए विद्वेषियों ने अपने को तीन टुकड़ियों में विभक्त कर लिया।
पहली टुकड़ी आचार्य के पास जाकर अभिवादन और वन्दना करके खड़ी हो गई।
आचार्य ने पूछा-''क्या है, आयुष्मानो?''
उत्तर मिला-''वह भाणवक आपके अन्तःपुर को दूषित कर रहा है।''
आचार्य ने डांट दिया-''जाओ, शूद्रो! मेरे शीलवान पुत्र और मुझमें विग्रह मत उत्पन्न करो।''
बीच-बीच में कुछ दिन छोड़ कर दूसरी-तीसरी टुकड़ी ने भी पहली टुकड़ी की बात दुहराते-तिहराते हुए कहा-''यदि आचार्य को हमारी बात पर विश्वास नहीं है, तो स्वयं परीक्षा करके देख लें।
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