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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


ब्राह्मणों ने भांवरें पढ़ीं और पढ़वाईं। फिर दावत-पंगत हुई। मेंढ़की की विदाई हुई। मेंढ़क के 'पिता जी' को दहेज भी मिला। मनुष्यों के विवाह में दहेज दिया जाए, तो मेंढ़क-मेंढ़की के विवाह में ही क्यों हाथ सिकोड़ा जाए? पानी बरसे या न बरसे, मेंढ़क के पिता जी बहरहाल कुछ से कुछ तो हो ही गए। नावता दादा की अंटी में भी रकम पहुंची और इन्द्रदेव ने भी कृपा की।

बादल आए, 'छाए और गड़गड़ाए; फिर बरसा मूसलाधार। लोग हर्ष मग्न हो गए। नावते की धाक बैठ गई; कहता फिर रहा था-''मेरी बात खाली तो नहीं गई! इन्द्रदेव प्रसन्न हो गए न।''

पानी बरसा और इतना बरसा कि रुकने का नाम न ले रहा था। नाले चढ़े, नदियों में बाढ़ें आईं। पोखरे और तालाब उमड़ उठे। कुछ तालाबों के बांध टूट गए। खेतों में पानी भर गया। सड़कें कट गईं।। गांवों में पानी तरंगें लेने लगा। जनता और उसके ढोर डूबने-उतराने लगे। बहुत से तो मर भी गए। सम्पत्ति की भारी हानि हो गई। आठ-दस दिन के भीतर ही भीषण  बर्बादी हुई। इन्द्रदेव के बहुत हाथ-पैर जोड़े। वह न माने, न माने। लोग कह रहे थे कि इससे तो वह सूखा ही अच्छा था।

फिर नावते की शरण पकड़ी गई अब क्या हो?
उसका 'नुस्खा तैयार था। बोला-''कोई बात नहीं। सरकार ने तलाक-कानून पास कर दिया है। मेंढ़क-मेंढ़की की तलाक कराए देता हूं। पानी बन्द हो जाएगा।''

''पर मेंढ़कों का वह जोड़ा कहां मिलेगा?''-लोगों ने प्रश्न किया।
नावते का उत्तर उसकी जेब में ही था। उसने चट सेर कहा-''मेरे पास है।''
''कहां से आया? कैसे''-प्रश्न हुआ।
उत्तर था-''मेंढ़क के पिता के घर से दोनों को ले आया था। जानता था कि शायद अटक न जाए।''

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